बुधवार, 5 अप्रैल 2023

#वीरांगना_उदा_देवी_की_जयंती_और_उनका_इतिहास #वीरांगना_उदा_देवी_की_जयंती_कब_मनाई_जाती_है


वीरांगना ऊदा देवी की जयंती को लेकर सामाजिक संगठनों के बीच खींची तलवारे

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 सच" क्या है

सच्चाई तो ये है कि

समाज के किसी भी बड़े राजनेता ने

चाहे वो कांग्रेसी नेता धर्म वीर भारती हो।

या फिर बहुजन विचारधारा को बढ़ावा देने वाले नेता राम समूझ पासी हो। या फिर आरके चौधरी हो। इन सभी बड़े नेताओं के द्वारा कभी भी वीरांगना ऊदादेवी पासी की जयंती 30 जून को मनाई ही नही गई नेताओ द्वारा विरागना ऊदादेवी की जयंती न मनाने तक तो ठीक था।

लेकिन तमाम पासी जाति के सामाजिक इतिहासकार चाहे वो।

इतिहासकार राजकुमार पासी हो।

या फिर इतिहासकार आर डी रावत निर्मोही हो।

या फिर इतिहासकार के०के० रावत हो। या फिर इतिहासकार रामदयाल वर्मा जी हो। या कोई अन्य इतिहासकार हो

इन सभी लेखकों के द्वारा समाज के उनके छुपे हुए इतिहास को साक्ष्यों के आधार पर अपनी अपनी किताबों में उल्लेख कर समाज को सही इतिहास से प्रचित कराया गया लेकिन किसी भी लेखक ने किसी भी पुस्तक में वीरांगना ऊदादेवी पासी की जयंती 30 जून को नही लिखी गई

इससे यह साबित होता है की वीरांगना ऊदा देवी की जयंती असमंजस में रही है लेकिन

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लेखक" पी०एच० डी० पासी रत्न रामलखन ने

पुस्तक स्मारिका 

पेज 59,60 पर लिखा है की

30 जून को वीरांगना ऊदा देवी पासी जी का जन्म दिन मना कर भ्रम फैलाया गया।

इस बात से साबित होता है की लेखक राम लखन पासी जी भी 30 जून विरागना ऊदादेव की  जयंती मानने से वो भी सहमत नही है जबकि रामलखन का सिकंदरा बाद में वीरांगना ऊदा देवी की मूर्ति स्थापित कराने में सहयोग रहा है

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विरागना ऊदा देवी पासी जी की जयंती को लेकर खींचा तानी क्यूं हो रही है । 

(कारण है विचार धारा)


बहुजन वादी पासियो 

का मानना है कि 14 अप्रैल को  विरागना माता ऊदा देवी पासी की जयंती मना कर बाबा साहेब के इतिहास वा उनकी जयंती को धूमिल करने की साजिश है 

यह तर्क बहुजन वादि पासियो का  है

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वही पासी वादी संगठनों का तर्क यह है कि

11 अप्रैल जोतिबा फुले  के जयंती वाले दिन बाबा साहेब  और जोतिबा फूले की सयुक्त जयंती मनाई जाती है तब उनकी जयंती धूमिल नहीं होती है

और स्वामी प्रसाद मौर्य ने सम्राट अशोक के जयंती वाले दिन बाबा साहेब की भी जयंती मनाई तब सम्राट अशोक की जयंती वा उनका इतिहास धूमिल नहीं होता है 

तो फिर सिर्फ विरागना माता ऊदादेवी पासी और बाबा साहेब आंबेडकर की सयुक्त जयंती मनाने मात्र से बाबा साहेब का इतिहास कैसे फीका पड़ सकता है।

क्या बाबा साहेब का इतिहास इतना कमजोर है जो सिर्फ एक पासी विरागना ऊदा देवी की जयंती मनाने मात्र से  फीका पड़ जायेगा । जबकी 

पिछले 3,4 सालो से पासी समाज के सामाजिक संगठन विरागना

ऊदा देवी पासी जी का जन्म  दिवस #14 अप्रैल को बड़ी धूम धाम से मनाते चले आ रहे है 

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इसी बात से परेशान बहुजन वादी विचार धारा के लोग  लेखक आसिफ आजमी से मिले और  वीरांगना ऊदा देवी पासी की जयंती का जिक्र 30 जून का करवाया गया  

लेखक, आसिफ आजमी एक पुस्तक लिख रहे थे। ( माटी के महायोध्या) पुस्तक माटी के महायोध्या  का लोकार्पण लखनऊ के इंदिरा गांधी प्रतिष्ठान में 19 मार्च 2023 रविवार को रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने किया था यह पुस्तक स्वतंत्रता सेनानियों की वीरगाथा पर लिखी गई है

इस पुस्तक में जिक्र किया है की वीरांगना उदा देवी का जन्म 30 जून को हुआ था लेकिन इसका कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलता  लेखक ने 30 जून का जिक्र भी कर दिया और अपना बचाओ भी कर लिया


(आत्म चिन्तन),

बहुजन वादी पासी संगठन  समाज को भ्रमित करने के लिए किस हद तक जा सकते है 

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(इतिहास)

वीरांगना ऊदा देवी पासी का #जन्म 1829 में लखनऊ के

समीप स्थित उजिरावां गांव में पासी परिवार में हुआ था।

जन्म तिथि अज्ञात है ।

भारतीय समाज में पासी विभिन्न जातियों मे एक वीर और आत्म स्वाभिमान जाति है


यह जाति वीर और लड़ाकू जाति के रूप में भी जानी जाती थी. इसी वातावरण में ऊदा देवी का पालन-पोषण हुआ. जिसे इतिहास की रचना करनी होती है, उसमें कार्यकलाप औरों से न चाहते हुए भी अलग हो ही जाते हैं.

जैसे-जैसे ऊदा बड़ी होती गई, वैसे-वैसे वह अपने हम उम्रों का नेतृत्व करने लगी. सही बात कहने में तो उदा पलभर की भी देर नहीं करती थी. अपनी टोली की रक्षा के लिए तो वह खुद की भी परवाह नहीं करती थी. खेल-खेल में ही तीर चलाना, बिजली की तेजी से भागना उदा के लिए सामान्य बात थी.

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सन् 1857 ई. में भारतीयों ने अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता का बिगुल बजा दिया. इस समय अवध की राजधानी लखनऊ थी और वाजिद अली शाह की बेगम हजरत महल और उनके अल्पवयस्क पुत्र बिरजिस कादिर ने अवध की सत्ता पर अपना दावा ठोंक दिया.

अवध की सेना में एक टुकड़ी पासी सैनिकों की भी थी. इस पासी टुकड़ी में बहादुर युवक मक्का पासी भी थे. मक्का पासी का विवाह ऊदा से हुआ था. जब बेगम हजरत महल ने अपनी महिला टुकड़ी का विस्तार किया तब उदा की जिद और उत्साह देखकर मक्का पासी ने ऊदा को भी सेना में शामिल होने की इजाजत दे दी. शीघ्र ही ऊदा अपनी टुकड़ी में नेतृत्वकर्ता के रुप में उभरने लगी.

10 मई 1857 मेरठ के सिपाहियों द्वारा छेड़ा गया संघर्ष शीघ्र ही उत्तर भारत में फैलने लगा एक महीने के भीतर ही लखनऊ ने भी अंग्रजों को चुनौती दे दी. मेरठ, दिल्ली, लखनऊ, कानुपर आदि क्षेत्रों में अंग्रेजों के पैर उखड़ने लगे. बेगम हजरत महल के नेतृत्व में अवध की सेना भी अंग्रेजों पर भारी पड़ी. किंतु एकता के अभाव व संसाधनों की कमी के कारण लम्बे समय तक अंग्रेजों का मुकाबला करना मुमकिन नहीं हुआ और अंग्रेजों ने लखनऊ पर पुनः नियंत्रण पाने के प्रयास शुरू कर दिए. दस जून 1857 ई. को हेनरी लॉरेंस ने लखनऊ पर पुनः कब्जा करने का प्रयास किया. चिनहट के युद्ध में मक्का पासी को वीरगति की प्राप्ति हुई. यह ऊदा देवी पर वज्रपात था किंतु ऊदा देवी ने धैर्य नहीं खोया. वह अपनी टुकड़ी के साथ संघर्ष को आगे बढ़ाती रही.

नवंबर आते-आते यह तय हो गया था कि अब ब्रिटिश पुनः लखनऊ पर कब्जा कर ही लेंगे. भारतीय सैनिक अपनी सुरक्षा के लिए लखनऊ के सिकंदराबाग में छुप गए. किंतु इस समय लखनऊ पर कोलिन कैम्पबेल के नेतृत्व में हमला हुआ. उदा देवी बिना लड़े हार मानने को तैयार नहीं हुई. अंग्रेजी सेना ने सिकंदराबाग को चारो ओर से घेर लिया. ऊदा देवी सैनिक का भेष धारण कर बंदूक और कुछ गोला बारूद लेकर समीप के एक पेड़ पर चढ़ गई और अंग्रेजों पर गोलियां बरसाने लगी. उदा की वीरता देख शेष सैनिक भी अंग्रेजों पर टूट पड़े. काफी समय तक अंग्रेजों को पता ही नहीं चला कि उन पर कहां से गोलियां चल रही हैं. ऊदा देवी की गोलियां ख़त्म हो गयी तब कैम्पबेल की दृष्टि उस पेड़ पर गई जहां काले वस्त्रों में एक मानव आकृति फायरिंग कर रही थी. कैम्पबेल ने उस आकृति को निशाना बनाया. अगले पल ही वह आकृति मृत होकर जमीन पर गिर पड़ी. वह व्यक्ति लाल रंग की कसी हुई जैकेट और गुलाब रंग की कसी हुई पैंट पहने था नीचे गिरते ही एक ही झटके में जैकेट खुल चुकी थी समीप जाने पर कैम्पबेल यह देखकर हैरान रह गया कि यह शरीर वीरगति प्राप्त एक महिला का था.वह महिला पुराने माडल की दो पिस्तौलों से लैस थी अतःउसके पास गोलियां नही बची थी बारलेस को जब मालूम हुआ कि वह पुरुष नहीं महिला है यह जानकर वह अपनी टोपी निकाल कर उन्हें सुलूट करता है यह घटना 16 नवंबर सन् 1857 ई. की है  

जब तक उदा देवी जीवित रहीं तब तक अंग्रेज सिकंदराबाग पर कब्जा नहीं कर सके थे. उदा देवी के वीरगति प्राप्त करते ही सिकंदराबाग अंग्रेजों के अधीन आ गया. अंग्रेजी विवरणों में ऊदा देवी को ‘ब्लैक टाइग्रैस’ कहा गया. दुःख व क्षोभ की बात यह है कि भारतीय इतिहास लेखन में ऊदा देवी के बलिदान को वो महत्व नहीं दिया गया जिसकी वो  अधिकारी है

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