बुधवार, 5 अप्रैल 2023

#वीरांगना_उदा_देवी_की_जयंती_और_उनका_इतिहास #वीरांगना_उदा_देवी_की_जयंती_कब_मनाई_जाती_है


वीरांगना ऊदा देवी की जयंती को लेकर सामाजिक संगठनों के बीच खींची तलवारे

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 सच" क्या है

सच्चाई तो ये है कि

समाज के किसी भी बड़े राजनेता ने

चाहे वो कांग्रेसी नेता धर्म वीर भारती हो।

या फिर बहुजन विचारधारा को बढ़ावा देने वाले नेता राम समूझ पासी हो। या फिर आरके चौधरी हो। इन सभी बड़े नेताओं के द्वारा कभी भी वीरांगना ऊदादेवी पासी की जयंती 30 जून को मनाई ही नही गई नेताओ द्वारा विरागना ऊदादेवी की जयंती न मनाने तक तो ठीक था।

लेकिन तमाम पासी जाति के सामाजिक इतिहासकार चाहे वो।

इतिहासकार राजकुमार पासी हो।

या फिर इतिहासकार आर डी रावत निर्मोही हो।

या फिर इतिहासकार के०के० रावत हो। या फिर इतिहासकार रामदयाल वर्मा जी हो। या कोई अन्य इतिहासकार हो

इन सभी लेखकों के द्वारा समाज के उनके छुपे हुए इतिहास को साक्ष्यों के आधार पर अपनी अपनी किताबों में उल्लेख कर समाज को सही इतिहास से प्रचित कराया गया लेकिन किसी भी लेखक ने किसी भी पुस्तक में वीरांगना ऊदादेवी पासी की जयंती 30 जून को नही लिखी गई

इससे यह साबित होता है की वीरांगना ऊदा देवी की जयंती असमंजस में रही है लेकिन

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लेखक" पी०एच० डी० पासी रत्न रामलखन ने

पुस्तक स्मारिका 

पेज 59,60 पर लिखा है की

30 जून को वीरांगना ऊदा देवी पासी जी का जन्म दिन मना कर भ्रम फैलाया गया।

इस बात से साबित होता है की लेखक राम लखन पासी जी भी 30 जून विरागना ऊदादेव की  जयंती मानने से वो भी सहमत नही है जबकि रामलखन का सिकंदरा बाद में वीरांगना ऊदा देवी की मूर्ति स्थापित कराने में सहयोग रहा है

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विरागना ऊदा देवी पासी जी की जयंती को लेकर खींचा तानी क्यूं हो रही है । 

(कारण है विचार धारा)


बहुजन वादी पासियो 

का मानना है कि 14 अप्रैल को  विरागना माता ऊदा देवी पासी की जयंती मना कर बाबा साहेब के इतिहास वा उनकी जयंती को धूमिल करने की साजिश है 

यह तर्क बहुजन वादि पासियो का  है

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वही पासी वादी संगठनों का तर्क यह है कि

11 अप्रैल जोतिबा फुले  के जयंती वाले दिन बाबा साहेब  और जोतिबा फूले की सयुक्त जयंती मनाई जाती है तब उनकी जयंती धूमिल नहीं होती है

और स्वामी प्रसाद मौर्य ने सम्राट अशोक के जयंती वाले दिन बाबा साहेब की भी जयंती मनाई तब सम्राट अशोक की जयंती वा उनका इतिहास धूमिल नहीं होता है 

तो फिर सिर्फ विरागना माता ऊदादेवी पासी और बाबा साहेब आंबेडकर की सयुक्त जयंती मनाने मात्र से बाबा साहेब का इतिहास कैसे फीका पड़ सकता है।

क्या बाबा साहेब का इतिहास इतना कमजोर है जो सिर्फ एक पासी विरागना ऊदा देवी की जयंती मनाने मात्र से  फीका पड़ जायेगा । जबकी 

पिछले 3,4 सालो से पासी समाज के सामाजिक संगठन विरागना

ऊदा देवी पासी जी का जन्म  दिवस #14 अप्रैल को बड़ी धूम धाम से मनाते चले आ रहे है 

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इसी बात से परेशान बहुजन वादी विचार धारा के लोग  लेखक आसिफ आजमी से मिले और  वीरांगना ऊदा देवी पासी की जयंती का जिक्र 30 जून का करवाया गया  

लेखक, आसिफ आजमी एक पुस्तक लिख रहे थे। ( माटी के महायोध्या) पुस्तक माटी के महायोध्या  का लोकार्पण लखनऊ के इंदिरा गांधी प्रतिष्ठान में 19 मार्च 2023 रविवार को रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने किया था यह पुस्तक स्वतंत्रता सेनानियों की वीरगाथा पर लिखी गई है

इस पुस्तक में जिक्र किया है की वीरांगना उदा देवी का जन्म 30 जून को हुआ था लेकिन इसका कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलता  लेखक ने 30 जून का जिक्र भी कर दिया और अपना बचाओ भी कर लिया


(आत्म चिन्तन),

बहुजन वादी पासी संगठन  समाज को भ्रमित करने के लिए किस हद तक जा सकते है 

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(इतिहास)

वीरांगना ऊदा देवी पासी का #जन्म 1829 में लखनऊ के

समीप स्थित उजिरावां गांव में पासी परिवार में हुआ था।

जन्म तिथि अज्ञात है ।

भारतीय समाज में पासी विभिन्न जातियों मे एक वीर और आत्म स्वाभिमान जाति है


यह जाति वीर और लड़ाकू जाति के रूप में भी जानी जाती थी. इसी वातावरण में ऊदा देवी का पालन-पोषण हुआ. जिसे इतिहास की रचना करनी होती है, उसमें कार्यकलाप औरों से न चाहते हुए भी अलग हो ही जाते हैं.

जैसे-जैसे ऊदा बड़ी होती गई, वैसे-वैसे वह अपने हम उम्रों का नेतृत्व करने लगी. सही बात कहने में तो उदा पलभर की भी देर नहीं करती थी. अपनी टोली की रक्षा के लिए तो वह खुद की भी परवाह नहीं करती थी. खेल-खेल में ही तीर चलाना, बिजली की तेजी से भागना उदा के लिए सामान्य बात थी.

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सन् 1857 ई. में भारतीयों ने अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता का बिगुल बजा दिया. इस समय अवध की राजधानी लखनऊ थी और वाजिद अली शाह की बेगम हजरत महल और उनके अल्पवयस्क पुत्र बिरजिस कादिर ने अवध की सत्ता पर अपना दावा ठोंक दिया.

अवध की सेना में एक टुकड़ी पासी सैनिकों की भी थी. इस पासी टुकड़ी में बहादुर युवक मक्का पासी भी थे. मक्का पासी का विवाह ऊदा से हुआ था. जब बेगम हजरत महल ने अपनी महिला टुकड़ी का विस्तार किया तब उदा की जिद और उत्साह देखकर मक्का पासी ने ऊदा को भी सेना में शामिल होने की इजाजत दे दी. शीघ्र ही ऊदा अपनी टुकड़ी में नेतृत्वकर्ता के रुप में उभरने लगी.

10 मई 1857 मेरठ के सिपाहियों द्वारा छेड़ा गया संघर्ष शीघ्र ही उत्तर भारत में फैलने लगा एक महीने के भीतर ही लखनऊ ने भी अंग्रजों को चुनौती दे दी. मेरठ, दिल्ली, लखनऊ, कानुपर आदि क्षेत्रों में अंग्रेजों के पैर उखड़ने लगे. बेगम हजरत महल के नेतृत्व में अवध की सेना भी अंग्रेजों पर भारी पड़ी. किंतु एकता के अभाव व संसाधनों की कमी के कारण लम्बे समय तक अंग्रेजों का मुकाबला करना मुमकिन नहीं हुआ और अंग्रेजों ने लखनऊ पर पुनः नियंत्रण पाने के प्रयास शुरू कर दिए. दस जून 1857 ई. को हेनरी लॉरेंस ने लखनऊ पर पुनः कब्जा करने का प्रयास किया. चिनहट के युद्ध में मक्का पासी को वीरगति की प्राप्ति हुई. यह ऊदा देवी पर वज्रपात था किंतु ऊदा देवी ने धैर्य नहीं खोया. वह अपनी टुकड़ी के साथ संघर्ष को आगे बढ़ाती रही.

नवंबर आते-आते यह तय हो गया था कि अब ब्रिटिश पुनः लखनऊ पर कब्जा कर ही लेंगे. भारतीय सैनिक अपनी सुरक्षा के लिए लखनऊ के सिकंदराबाग में छुप गए. किंतु इस समय लखनऊ पर कोलिन कैम्पबेल के नेतृत्व में हमला हुआ. उदा देवी बिना लड़े हार मानने को तैयार नहीं हुई. अंग्रेजी सेना ने सिकंदराबाग को चारो ओर से घेर लिया. ऊदा देवी सैनिक का भेष धारण कर बंदूक और कुछ गोला बारूद लेकर समीप के एक पेड़ पर चढ़ गई और अंग्रेजों पर गोलियां बरसाने लगी. उदा की वीरता देख शेष सैनिक भी अंग्रेजों पर टूट पड़े. काफी समय तक अंग्रेजों को पता ही नहीं चला कि उन पर कहां से गोलियां चल रही हैं. ऊदा देवी की गोलियां ख़त्म हो गयी तब कैम्पबेल की दृष्टि उस पेड़ पर गई जहां काले वस्त्रों में एक मानव आकृति फायरिंग कर रही थी. कैम्पबेल ने उस आकृति को निशाना बनाया. अगले पल ही वह आकृति मृत होकर जमीन पर गिर पड़ी. वह व्यक्ति लाल रंग की कसी हुई जैकेट और गुलाब रंग की कसी हुई पैंट पहने था नीचे गिरते ही एक ही झटके में जैकेट खुल चुकी थी समीप जाने पर कैम्पबेल यह देखकर हैरान रह गया कि यह शरीर वीरगति प्राप्त एक महिला का था.वह महिला पुराने माडल की दो पिस्तौलों से लैस थी अतःउसके पास गोलियां नही बची थी बारलेस को जब मालूम हुआ कि वह पुरुष नहीं महिला है यह जानकर वह अपनी टोपी निकाल कर उन्हें सुलूट करता है यह घटना 16 नवंबर सन् 1857 ई. की है  

जब तक उदा देवी जीवित रहीं तब तक अंग्रेज सिकंदराबाग पर कब्जा नहीं कर सके थे. उदा देवी के वीरगति प्राप्त करते ही सिकंदराबाग अंग्रेजों के अधीन आ गया. अंग्रेजी विवरणों में ऊदा देवी को ‘ब्लैक टाइग्रैस’ कहा गया. दुःख व क्षोभ की बात यह है कि भारतीय इतिहास लेखन में ऊदा देवी के बलिदान को वो महत्व नहीं दिया गया जिसकी वो  अधिकारी है

रविवार, 15 जनवरी 2023

bhar pasi cast । भर पासी जाति का इतिहास।


 भर ही पासी हैं।,,,

लग भग सभी विद्वान जिन्होंने भारत में जातिओ पर लेखनी चलाई है या जनगणना आयुक्त में रह कर पुस्तकें लिखी हैं सभी ने एक स्वर से यह स्वीकार किया है कि आधुनिक जाति पासी,ताड़ माली प्राचीन समय की भर या भारशिव जाति है।और जिसका अवध पर शासन रह चुका है। परंतु कुछ मंद बुद्धि और चालाक लोग इस जाति को आए दिन अपमानित करने से नहीं चूकते है,और पासियो की पसीने से उत्पत्ति की रट लगाते रहते हैं। जबकि अपनी जाति राजभर को  भरद्वाज कहीं भर पटवा  आदि बताते रहते हैं ऐसे एकांगी भद्दी सोच वाले वकील को जवाब देना लाजमी हो जाता है 

वे यह भी जानें कि भरद्वाज वे थे जो बृहस्पति द्वारा अपनी छोटी भाभी उतथ्य की पत्नी ममता से बलात्कार स्वरूप पैदा हुए थे यह भरद्वाज नाम का अर्थ है। पासी ने कभी यह नहीं कहा कि वह परसुराम  से उत्पन्न है वह तो भृगु से अपनी पैदाइश जरुर कहा, क्यों कि भृगु वरुण सुत और पाश धर है।भरपटवा तो सभी जानते हैं बुन कर या कोरी,धागे से आभूषण गूंथने वाले कहे जाते हैं।

चार्ल्स एल्फ्रेड ईलिएट ने क्रोनिकल्स ओफ उन्नाव नामक पुस्तक सन् 1862 मे लिखी थी जिसका अमुक एकांगी चंट वकील गलत तरीके से पृष्ठ २७ पर के उद्धरण को चालाकी से  राजपासी के स्थान पर राज पूत कहता है अपने वीडियो में और जिस राजभर को बार बार दोहराया करता है,उसका इस पृष्ठ सत्ताइस पर कहीं नाम भी नहीं है ।नाम है तो चेरु और भर तथा राज पासी का  पूरे उत्तर प्रदेश पर राज्य होने का। जिक्र मिलता है देखें  ,,,

We find Ajoodhia destroyed, the Soorajbunses utterly vanished and a great extent of country ruled over by oborigines called Cheerusin the fo East Bhars in the centre and Raj pasis in the West,

 

हिंदी अनुवाद इस प्रकार से होगा ,हम पाते हैं कि अयोध्या को नष्ट कर दिया गया था और सूर्यवंशी लोगों को निकल दिया गया था तथा राज्य के बड़े  भू भाग पर आदिवासी कहे जाने वाले चेरु पूरब में,मध्य में भर तथा पश्चिम में राज पासी राज्य करते थे।

   इन वकील महाशय यद्यपि यह सम्बोधन इनके लिए उचित नही है पर पेश गत  गरिमा हेतु ही सही,  कहना जायज है क्योंकि मैं भी लां ग्रेजुएट हूं, राज पूत आदिवासी कहा है,राजपासी कहते तो इनके राजभर बन्धु ही नाराज़ हो जाते।पर सत्यता का बिलोपन हो गया ।वह इसके लिये जायज ठहरा।

 क्रुक महोदय कहते हैं कि अपनी पुस्तक में,

 पासी सदैव यह दावा करते आए हैं कि वे भरों से  सम्बंधित हैं और मिर्जा पुर के पासी तो यही कहते हैं हम स्थानीय तौर पर भर है।और आरख पासी से सम्बंधित क्रिया शील समूह भर से निर्मित हुआ है।

    The Pasis always claim kindred with the Bhar ,si in y Mirjapur the local Pasi,and perhaps also kindred tribes arakhs are Functional groups formed from the Bhar tribes.

     इसी तरह से ब्लंट महोदय तो साफ तौर पर कहते है१९२८मे अपनी फ्रेंचाइज रिपोर्ट मे भरो का दू सरा नाम पासी हैं।फिर भी उनकी पुस्तक दि कास्ट सिस्टम ओफ नार्दर्न इंडिया के पृष्ठ 40 का

अवलोकन करें,,,,

  There are several pairs of castes each of which possess a section by the name of the other. Such pairs are the,,,,,, 

Ahir..Gujar

Barai..Tamoli

Arakh,,Khangar


Bhar,,Dusadh

Bhar,, Pasi and

Bind,,Kevat. 

      यहां पर बहुत सी जातियों के युग्म समूह  हैं जो एक अन्य दूसरे वर्गीकृत  समूह गत नाम से भी जानें जाते हैं।जैसे,,,,अहिर गुजर, बराई तमोली,आरख खंगर,भर दुसाध,भरपासी और बिन्दु केवट।

आंग्ल लेखक शैरिंग तो यही कहते हैं अपनी पुस्तक हिन्दू ट्राइबस ऐन्ड कास्ट्स में भर पासी एक उप जाति है, देखें,,,,

The bhar are the some times classed among the Pasi .They have a tradition that is ancient times they were one and the same race which is  indeed possible.

हिंदी अनुवाद,भरो को किसी समय  पासी में गिना जाता था,पासी में परम्परा यह पाई जाती थी कि पासी और भर एक  ही जाति हैं जो सम्भव लगती हैं।

पुस्तक ,भारत के लोग ,लेखक के,एस, सिंह वालूम तीन में पृ,सं 1070 पर यह लिखा है,सन् 1993

 कि पासी जाति ने अपनी उत्पत्ति ऋषि भृगु से बत लाते है, हीरालाल व रसेल का यह मत है कि राज पूतो द्वारा पराभव के पहले अवध के एक हिस्से पर पासी काबिज थे। और ब्राम्हण  लिजेन्ड के  हिसाब से एक परसुराम के पसीने से उत्पन्न हुए हैं। ऐसा ब्राह्मण कहते हैं क्योंकि क्षत्रियों से उन्हें संघर्षरत रखना था। पासी ने अपनी उत्पत्ति भृगु से जरुर कहीं क्यों कि उनके पिता वरुण पाशधर हैंभृगुवंशीपासी वीर दलका संगठन  श्री गुरु चरन देव  हरदोई ने सन् 1940 मे किया था। उनका बिल्ला मेंरे  पास है।यहां पर यह भी दिया है कि इनकी उत्पत्ति संस्कृत शब्द पाशिक से हुयी है श्री बी,एन लूनिय भी इसे सही मानते हैं, किताब जाति वर्ग और व्यवसाय, में घूर्वे भी यही कहते है अर्थात पाश का प्रयोग करने वाला समूह।फिर भी पासी को हेय बतलाने का आदी वकील पसीना पसीना चिल्लाने से नहीं चूकता। अपना जलवंशी बिन्दु केवट से रिश्ता छिपाता रहता जो इसकी सजातीय लेखिका अमृता राजभर स्वयं कहती ।

     अब गुप्ता युग को देखते हैं तो जिन से भारशिव राजा हारे तो उनके द्वारा गठित एक विभाग  पाशिको को आंन्तरिक सुरक्षा में पुलिस में रखा गया  ।विभाग का नाम पाशाधिकरण था।

         आरक्षण पुलिस के अधिकारी थे दंड पशाधिकारी, इसमें साधारण सिपाही और गुप्तचर दोनों सामिल थे, साधारण सिपाही के पास  लाठी और रस्सी थी।  भारतीय प्राचीन संस्कृति, पुस्तक, लेखक बी, एन लूनिया,पृ,सं,  528 

 इसी को देख कर लोगों में यह कहावत पाई जाती है कि पासी का लट्ठ पठान ही झेले। अर्थात औरों के वश की नहीं ।  हम ऐतिहासिक दृष्टि से भारशिव नाग राजवंश से निकल कर आए दंड पाशिक, लाठी वालें सिपाही , भर पाशी हैं और रहेंगे,पाशी नव युवक जाग चुका है।  


भर पासी चेरू और राजभर,,,,, 

       इस प्रस्तुत लेख में हम उपरोक्त सभी जातियों की जनसंख्या महत्व और सम्बंधित क्षेत्रीय स्थिति पर प्रथक प्रथक प्रकाश डालने की कोशिश उपलब्ध पुस्तकों के विवरणों के  आधार पर करने जा रहे हैं।

 सबसे पहले हम चार्लस अल्फर्ड एलिएट की पुस्तक, उन्नाव का वृतांत ,क्रोनिकलस  आफ  उन्नाव के पृष्ठ सं, २७ के उस संदर्भ को लेते हैं राजभर के वकील,व इतिहासकार गलत बयान बाजी करते हैं । कोई कहता हैं राजपासी की जगह पर राजपूत या कोई कहता है कि हमने पश्चिम का क्षेत्र पासी सैनिकों को दे दिया था और पूरब का क्षेत्र सैनिक चेरु लोगो को दे दिया था। और हम राजा थे यानी राजभर  बीच आवध में ,जो सरासर झूठ है क्योंकि अवध में इनका कोई उल्लेख नही है पूरे २७ पृष्ठ पर। उल्लेख है तो भर लोगों का। देखें,,,,

            ,Ajoodhia destroyed, the Soorajvanshis  utterly vanished,and a great extent of the country ruled by aborigines called Cheeroos inthe

 far east,Bhars in the centre,and

Rajpasis in the West.

      अनुवाद, अयोध्या को नष्ट कर ,सूरज वंशी

 लोगो को निष्कासित कर दिया गया था।राज्य उत्तर प्रदेश के बड़े भू भाग पर,पूरब में चेरू,मध्य में भर और पश्चिम में राजपासी राज्य कर रहे थे। 

         इस में कोई किसी का अधीनस्थ नही था सच बात तो यह है कि यह नाग वंश भारशिव का शासन था और सब एक ही थे छोटे बड़े का प्रश्न ही नही उठता।कौन किसका सैनिक था सब झूठ का पुलिंदा है। राजभर पूर्णता गायब है 

       अब हम भर और पासी की उस जनगणना को दे रहे है जो सन 1881 में जौन नेश्फील्ड,आई,सी,यस सेंनसस सुपरीन्टेन्डेट ने दी है और ग्यारह जातियों को एक  शिकारी की श्रेणी में रखा है। यथा वो जातियां कुछ इस तरह है ,,,,,

बौरिया,,,,,,,,22096

बहेलिया,,,,,,67360

भर,,,,,,,,,,,,360270

आरख,,,,,,,,,64713

धानुक,,,,,,,,,,12341

खंगर,,,,,,,,,,32304

पासी,,,,,,,,,,,1049961

खरवार,,,,,,,,578

धिंगर,,,,,,,,,,,4914

दुसाध,,,,,,,,,+ ++

 खटिक,,,,,,,252030

      यहां जो जन गणना की तालिका दी गई है उसमें सबसे ज्यादा जनसंख्या पासी की है दश लाख उन्चास हजार नौ

 सौ एकसठ।और दूसरा नम्बर की जनसंख्या भर की है तीन लाख,साठ हजार,दो सौ सत्तर।

      पासी भर से तीन गुना अधिक है भर से।

 अवध में भर नही है वे सभी जिलो में पासी में बदल गया समुह मौजूद हैं। इस लिये शेयरिंग महोदय कहते हैं,कि पासी अ्वध में शक्ति शाली है और संख्या बल में,राजभर, भारत,भर पटवा सबको पीछे  छोड बहु संख्यक है भर लोग। यानी पासी।    They are very powerful in Oudh, पृष्ठ 357 हिन्दूट्राइब एन्ड कास्टस इसी पुस्तक में पृष्ठ सं,399 पर वे फिर कहते हैं कि पासी लोगों में यह परम्परा पायी जाती है कि प्राचीनकाल में भर पासी एक ही #जाति थी।जो वास्तव में सम्भव है।   They have a tradition that  in ancient times they were One and the same race which is indeed possible. p age 399.

       अब हम चेरो की जन संख्या देखते हैं तो हमें ताजे आंकड़े मिल जाते हैं सन 1981 में यह लोग,सत्रह हजार दो सौ उन्तालीस थे ,17339 और यह लोग भार्गववंशी च्वयन  के कुल से जोड़ते है #पासी भी #भार्गव यानी भृगु वंशी अपने को कहते आये   है जिसमें #परसुराम आदि पैदा हुए पौराणिक कथा के अनुसार, पर है ए #भारशिव ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से।

    राजभरो की जन संख्या सन1872 में मात्र 13481 ,तेरह हजार चार सौ एक्यासी पाई गई थी और जिले थे जौनपुर,आजमगढ, #गाजीपुर, गोरखपुर, और बस्ती ।सिर्फ पांच जनपद ही।

     दूसरी एक नई सूचना इलाहाबाद हाईकोर्ट से यह प्राप्त हुई है उनका इतिहास कार और उनके वकील सब लोगो ने पांच की संख्या में यह एक पेटीशन प्रस्तुत किया हैं कि हम राजभर लोग #पासी ताडू माली की उपजाति #राजभर है। हमें आरक्षण दिया जाय।तीन चार उसमें शपथ पत्र भी लगाये गये हैं।बिडम्बना देखिए पासी से लड़ेगे भी और पासी भी बनना चाहतें हैं।


लेखक इतिहासकार रामदयाल वर्मा

सोमवार, 16 मई 2022

महाराजा लाखन पासी


 आखिर 'नवाबों का शहर'  का नाम लखनऊ कैसे पड़ा ? जानिए लखनऊ नामकरण के पीछे की कहानी 

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लखनऊ बसने के किताबी उल्लेख -

                                                   पहला किताबी उल्लेख अकबर के शासन काल में बिजनौर के शेखों का लखनऊ आकर बसने से शुरु होती है, उससे पहले यहां पासी समुदायों की घनी आबादी के साथ साथ ब्राह्मण और कायस्थों की टीले के इर्द गिर्द बसाहट दिखाईं देती हैं , इसके तह तक जाने में हमे 1896 के आसपास लिखी किताब " गुंजिश्ता लखनऊ " जिसे जाने माने लेखक साहित्यकार श्री अबुल हलीम शर्रर ने लिखा था जो नवाब वाजिद अली शाह के दरबारी भी थे और उनका परिवार उनके करीबी भी, उनसे अच्छा उदाहरण क्या हो सकता है, जिनकी किताब से उस समय के लखनऊ का खूबसूरत चित्रण किया गया है 

                              श्री अबुल हलीम शर्रर जी ने अपने किताब में लखनऊ के बारे में कुछ इस तरह बयां किया है की :- 

      " कहा जाता है कि महाराजा युधिष्ठिर के पोते राजा जन्मेजय ने यह इलाका तपस्वियों और ऋषियों-मुनियों को जागीर में दे दिया था जिन्होंने यहां चप्पे-चप्पे पर अपने आश्रम बनाये और भगवान के ध्यान में लीन हो गये । एक मुद्दत के बाद उनको कमज़ोर देखकर दो नयी जातियों ने हिमालय की तराई से आकर इस प्रदेश पर अधिकार कर लिया। ये जातियां आपस में मिलती-जुलती और एक ही नस्ल की दो शाखाएं मालूम होती थीं: एक 'भर' और दूसरी 'पांसी'  

इन्हीं लोगों से सैयद सालार मसूद ग़ाज़ी का 1030 ई० में मुक़ाबिला हुआ और शायद उन्हीं पर बख्तियार खिलजी ने 1202 ई० में चढ़ाई की थी । लिहाजा इस प्रदेश में जो मुसलमान परिवार पहले-पहल आकर आबाद हुए वे इन्हीं दोनों हमलावरों खासकर सैयद सालार मसूद ग़ाजी के साथ आनेवालों में से थे 


भर और पांसियों के अलावा ब्राह्मण और कायस्थ भी यहां पहले से मौजूद थे "


भर अवध में पासी जाति की उपजाति और भर का दूसरा नाम पासी है ऊपयुक्त लेख से समझ गए होंगे की पहले इस टीले पर आबादी पासी जाति की रही है मुसलमानो का आगमन बाद में हुआ दूसरी बात ये कि लखनऊ के आसपास कई इलाके जो पासी राजा के नाम से पड़े ,जैसे कन्समंडी राजापासी राजा कंस के नाम से, मलिहाबाद राजा मलीहा पासी , बिजनौर राजा बिजली पासी के माता के नाम से , लखनऊ हाई कोर्ट के बगल बिजई पुर गांव राजा बिजई पासी के नाम से , हैबत मऊ हैबत पासी के नाम से आदि सैकड़ों नाम जो पासी राजा/मुखिया के नाम से संबंधित और जाने जाते है तो लखनऊ क्यों नही.. जी बिलकुल मुसलमानो के आगमन से पहले यहां पासी जाति का शासन रहा है तो पासी नाम ही पहले जहन में आते है और कोई जाति या समुदाय इस जगह शक्तिशाली नही रहे है तो उनके बारे सोचना व्यर्थ जैसा है


ब्रिटिश विद्वान कहते है  की कोई भी बस्ती जिसके नाम के आगे " पुर " या "बाद" या " मऊ " जुड़ा होता हैं वह गांव या बस्ती पासी जाति से जुड़े होते है आमतौर पर पासियो के गांव के नाम मऊ पुर या बाद है वहां कभी पासी जाति का प्रभुत्व रहा है 


इसी संबंध में लखनऊ के प्रतिष्ठित इतिहासकार  स्व श्री योगेश प्रवीन जी का मत है " की लखनऊ का नामकरण महाराजा लाखन पासी के नाम से पड़ा उस जमाने में यह लखनपुर या लखनमऊ हुआ करता था धीरे धीरे लखनमऊ और लखन मऊ से लखनऊ हो गया ऐसा प्रतीत होता है "


यहां भी "मऊ"शब्द बेहद प्रबल दिखाईं देता है और मऊ शब्द पासी जाति से जुड़ा होना इस तर्क को मजबूत बल देता है लखनऊ में खुद की एक निजी सर्वे के तहत मऊ संबंधित जीतने पुराने गांव है वहां पासी जाति की बहुलता है जिससे इस मत में कोई संदेह नहीं होता ।


सेंसस ऑफ इंडिया 1971  में साफ साफ लिखा है।          " king lakhan Pasi founded Lucknow " लखनऊ को लाखन पासी ने बसाया है 


लाखन टीले से शाह पीर मुहम्मद का टीला  परिवर्तित


1896 पेज न.13 पर श्री शरर जी लिखते है :-

                                     " पुराने जमाने के आनेवालों में शाह मीना का परिवार भी है जिनका मज़ार आजतक सर्वसाधारण का शरणस्थल है। और शायद इसी समय के आनेवालों में शाह पीर मुहम्मद भी थे जिन्होंने खास लक्ष्मण टीले पर निवास किया और वहीं उसका देहांत भी हुआ। उन्हीं के वहां रहने के कारण वह पुराना टेकरा लक्ष्मण टीले से 'शाह पीर मुहम्मद का टीला हो गया और समय बीतने के साथ वह गहरी गुफा भी पट गयी । उस पर बाद के ज़माने में शहनशाह श्रौरंगजेब ने जो खुद वहां आया था एक बढ़िया, मजबूत, खूबसूरत और शानदार मस्जिद बनाकर खड़ी कर दी । "


इतिहासकार श्री योगेश प्रवीन और अमृत लाल नागर भी उस टीले पर नागो का प्राचीन शिवमंदिर और एक कुंआ जो गुफा के समान है जिसकी थाह कोई ले नही सकता है  ऐसी चर्चा की है 


श्री शरर जी अपने विवरण में  इसबात की खुली चर्चा करते है की- टीले पर एक गहरा गुफा या कुंआ है 


          " इस टीले में एक बहुत ही गहरी गुफा या कुआं था जिसकी किसी को थाह न मिलती थी और लोगों में मशहूर था कि वह शेषनाग तक चला गया है। इस विचार से लोगों में आस्था के भाव जागे और हिंदू लोग भक्ति-भाव से उसमें फूल-पानी डालने लगे " ।


अब अकबर से पहले प्राचीन महाराजा लाखन पासी की कहानी = महाराजा लाखन पासी ( 10-11 )

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इतिहासकार श्री योगेश प्रवीन जी कहते है " की सैयद सालार गाज़ी से  कंसमंडी की बिकट लड़ाई के बाद अगली लड़ाई लखना कोट के नीचे लड़नी पड़ी वह बड़ा भीषण युद्ध था "


लाखन पासी किले का इतिहास जानकारों की माने और इतिहास पर नजर डालें तो कहीं न कहीं सामने आया प्राचीन समय का निर्माण किसी किले के जमीन के नीचे दबे होने के संकेत दे रहा है ।  प्राचीन इतिहस में महाराजा लाखन पासी के इतिहास के बारे में दी गई जानकारियों के मुताबिक लखनऊ गजेटियर ( ब्रिटिश काल ) में भी लिखा है कि जिले के प्राचीन स्थानों की संख्या बहुत थोड़ी है । अधिकतर टीले या डिह जो विद्यमान है. पासियों के बताए जाते है।यह सब इस बात के स्पष्ट प्रमाण है कि लखनऊ और उसके आस पास के समस्त जिलो पर पासियों का राज था  और लखनऊ को राजा लाखन पासी ने बसाया था महाराजा लाखन पासी के समय लखनऊ एक छोटा नगर था । आज जहा लखनऊ मेडिकल कालेज एवं टीले वाली मस्जिद है वह स्थान महाराजा लाखन पासी का किला और उससे संबद्ध में  भवन हुआ करते थे । कालान्तर में उन पर राजपूतों और मुसलमानों के हमले होते रहे और संरक्षण के अभाव में ये ऐतिहासिक धरोहर नष्ट होती गई । इतिहासकार योगेश प्रवीन ने अपनी पुस्तक दास्ताने अवध में राजा लाखन पासी का उल्लेख किया है । कई विद्वानों ने अपनी पुस्तक में स्पष्ट लिखा है कि लखनऊ की लाखन पासी ने बसाया था 


राजा लाखन पासी के साक्ष्य✓

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देखिए जब से इतिहास की जानकारी होती है तभी हम कुछ कह सकते हैं बिना साक्ष्यों और  बिना प्रमाण के कोई बात करना उचित नहीं होता  और इसलिए किसी भी स्टोरी के पीछे हम तहकीकात करते हैं तब किसी न किसी साक्ष्यों पर या किसी ने किसी किदवंती और पौराणिकता को छूते हैं  और साथ में उससे जुड़े हुए ऐतिहासिक तथ्यों का आकलन भी करते हैं जिससे हम ऐतिहासिक तथ्यों पर विश्वास करते हैं और यह सही भी है लेकिन जब साथ में कुछ पौराणिक घटनाओं का जिक्र होता है तो उसको भी ध्यान में रखा जाता है और इसी प्रकार से जब लखनऊ शहर की बात करते हैं इस शहर का नाम लखनऊ कब पड़ा ?  कैसे पड़ा ?  इसके पीछे क्या साक्ष्य हैं?  तो हम पाते हैं लखनऊ शहर के बारे में प प्रायः दो मत का प्रचार है - 


1. सामान्य विश्वास के अनुसार इस शहर का नाम यहां के राजा लाखन पासी ( लखना) के नाम से पड़ा जो किसी समय यहां बड़े शक्तिशाली थे  ऐसा इसलिए कहा जाता है कि आसपास के संपूर्ण क्षेत्र पर पासियों का राज रहा है जिनके किलो के अवशेष आज भी विद्यमान हैं.


2. साथ ही  विश्वास के अनुसार यह कहा जाता है कि पौराणिकता के अनुसार राम के भाई लक्ष्मण के नाम से इस शहर का नाम लक्ष्मणपुर से लखनपुर पड़ा और लखनपुर से नवाबों के समय लखनौ और फिर अंग्रेजों के समय लखनऊ हो गया ।


जब हम पौराणिकता कि साथ जाते हैं तो प्राचीन समय से आज तक राम या राम से जुड़ी कोई भी चीज ऐतिहासिक रूप से उपलब्ध नहीं होती । जिस पर विश्वास करना कठिन होता है


      वहीं दूसरी तरफ जब हम राजा लाखन पासी की बात करते हैं तब उनसे जुड़े उनके किलो और उनके द्वारा निर्मित भवनों  अवशेष लखनऊ में देखने को मिल जाते हैं जिन का अध्ययन करने से पता चलता है यह लगभग हज़ार साल पहले 

का है -

अब जब हजार साल पुराने साक्ष्यों का अध्ययन करते हैं तब यहां इस  क्षेत्र पर लखनऊ सहित आसपास के 14 जिलों में पासियों का एकछत्र राज रहा जिसका समय काल 9. वी सदी 12 वी सदी. तक देखा गया बाद में  निरंतर  हुवे मुस्लिम और राजपूतों के आक्रमण से उनके राज्य छिन्न-भिन्न हो गए ।


मुस्लिम आक्रमण 

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भारत में मुस्लिमो का आक्रमण सातवीं सदी के आते-आते बड़ी तेजी से होते नज़र आते है उसी क्रम में जब हम 10 वीं सदी की बात करते हैं तभी इस क्षेत्र पर सैयद सालार मसूद गाजी का आक्रमण होता है जिसके पास में लाखों की तादाद में सैन्य बल और सेना होती है पंजाब दिल्ली कन्नौज को जीतता हुआ क्षेत्र अवध पर पहुंचा , कन्नौज के राजाओं ने मुसलमानों की अधीनता स्वीकार कर ली थी। 

                                और वह इस क्षेत्र को जीतने के लिए आगे बढ़ा  और लखनऊ की धरती पर कदम रखते ही उसकी बिकट लड़ाई कसमंडी ( काकोरी ) के  शक्तिशाली रजपासी राजा कंस से लड़नी पड़ी । प्रथम युद्ध में गाजी की सेनाओं को हार का मुंह देखना पड़ा तब यह क्षेत्र पासियों से भरा हुआ था मुसलमानों को इस बात का अंदाजा नहीं था कि यहां के पासी  इस हद तक युद्ध करेंगे कि उसकी मौत का कारण  बन जाएंगे अपने जीत के नशे में चूर सैयद सालार मसूद गाजी बहुत जल्द हार का स्वाद चखना पड़ा ,और सारी सेना सहित वह बहराइच में पासी  राजा सुहेल देव के हाथों मारा गया ।


#लखनऊ में पासियो का  संघर्ष  

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इतिहासकारों का मानना है कि #कंसमंडी के विकट लड़ाई के बाद मसूद गाजी को अगली बिकट  लड़ाई लाखन कोट पर लड़नी पड़ी ।

               क्योंकि कंसमंडी के दौरान राजपासी  कंस वीरगति हुवे, लेकिन उससे पहले  सैयद सलार गाजी के दो भतीजे सैयद हातिम और खतीम को मौत के घाट उतार दिए थे  जिसकी मजारे आज भी कसमंडी में देखने को मिल जाती हैं

और लखनऊ अकबरी गेट के सामने उस समय मैदान था जहां पर भीषण युद्ध हुआ था और उसके बाद लाखन कोट पर यह युद्ध इतना भयंकर हुआ । अपने भतीजे के मौत से बौखलाए सैयद सालार मसूद गाजी ने अपनी लाखों की सेना इस कोट को जीतने के लिए लगा दी  आज भी उस युद्ध की गवाही देता पास में गंजशहीदा आज भी मौजूद है जहां मुसलमानों की लाशे है आज भी दफन है, और इतिहासकारों का मानना है कि लखनऊ की बिकट लड़ाई में ही राजा लाखन पासी वीरगति हुए  । 

 और फिर मसूद गाजी ने यहां से गोमती पार करके बाराबंकी में सतरिख में अपना पड़ाव डाला था और फिर युद्ध की सारी नीतियां वहीं से बनाई लेकिन लखनऊ के बिकट  युद्धों से मसूद गाजी इतना घायल हुआ कि उसकी सेनाओं को उबरने में बड़ा समय लगा,  फिर आगे बहराइच में पासी राजा सुहेलदेव के हाथो मारा गया ।   


तो यह कहानी है महाराजा लाखन पासी की और उनके द्वारा किए गए युद्धों की जो आज भी किस्सों कहानियों में लखनऊ में सुनने को मिल जाती है  ।


अब बात करते है ऐतिहासिक साक्ष्यों की 

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ऐसी बहुत सारी किताबें हैं लेकिन एक ऐसी किताब है जिसमें बकायदा राजा लाखन पासी के बारे में बताया गया है जिसके नीचे में पन्ने को अपलोड कर रहा हूं जिसे आप देख लीजिएगा


जी हां मैं बात कर रहा हूं  ( The beautiful india  uttar Pradesh -1978 ) जो  Central archaeological library में मिल जाएगी जिस पर उसकी मोहर भी है  जिसके पेज नंबर 175 पर जाने से लखनऊ के बारे में आपको जानकारी दी गई है वह निम्नवत है - 


( Lucknow ) -   लखनऊ: लखनऊ (लखनऊ), बगीचों का शहर, #गोमती के किनारे स्थित है।  लखनऊ नाम की उत्पत्ति पर विवाद है।  " मुस्लिम इतिहासकारों का मत है कि बिजनौर शेख करीबन 1526 ई. में यहां आकर बस गए थे और उस समय के इंजीनियर लखना पासी की देखरेख में अपने लिए एक किला (किला) बनवाया था।  प्रारंभ में किला लखना के रूप में नामित यह धीरे-धीरे लखनऊ में बदल गया।  दूसरी ओर,  हिंदू साहित्य एक अलग संस्करण देता है।  ऐसा कहा जाता है कि भगवान राम के सौतेले भाई, लक्ष्मण, जिन्हें लखन के नाम से जाना जाता है, का जन्म यहीं हुआ था और #लखनपुर शहर की स्थापना यहां पर हुई थी।  यह बाद वाले मत से ऐसा  प्रतीत होता है क्योंकि इस समय तक इंजीनियर के नाम पर किसी शहर का नामकरण नहीं किया गया है, हालांकि शहर और कस्बों का नाम राजकुमारों और शासकों के नाम पर जरूर रखा गया है।"


नोट -  विद्वानो ने इंजीनियर की बात को खारिज कर राजकुमारो एवं शाशको के नाम से हो सकता है स्वीकारा गया है  


मुस्लिम इतिहासकार यह अच्छी तरीके से जानते थे कि लाखन पासी नाम का कोई शासक था । 

                      दूसरी बात यह कि पासी शासकों ने कई जगह सुंदर-सुंदर निर्माण करवाएं जिनका उदाहरण आज भी आप देख सकते है और ब्रिटिश गजेटियर से प्रमाणित भी है किलो के संदर्भ में ,जैसे महाराजा बिजली पासी के 12 किले लखनऊ में देखने को मिल जाते हैं जिनके , उचित देखे रेख ना होने से खंडहरों के रूप में बचे हैं  


इंजीनियर कहने का तात्पर्य - उनका नए नए भवनों का निर्माण की  चाहत रखने वाला ( राजा)  से हो सकता है  जो ऐतिहासिक रूप से सत्य प्रतीत होता है क्योंकि यहां पर पासियो का राज था और उनके ढेरों प्राचीन किले एवं डीह देखने को मिल जाते हैं   


तो जो सदियों सदियों से लखनऊ के बारे में जो मत है वह भी आपके समाने रखा है  दोनों मत आपके सामने बताया है


1. एक तो राम के भाई लक्ष्मण के नाम से 

2.  दूसरा महाराजा  लाखन पासी के नाम से , जिनके बहुत से ऐतिहासिक प्रमाण हैं जैसे  ;- 


(i ) संस्कृति विश्वकोष vol.1 by सूर्यप्रसाद दीक्षित

(ii) प्रख्यात इतिहासकार श्री योगेश प्रवीन

(iii) प्रख्यात इतिहासकार अमृतलाल नागर जी

(i v) सेंसस ऑफ इंडिया सीरीज 1971

(V) The beautiful india uttar Pradesh ,page no. 175 


आदि बहुत से साक्ष्य हैं महाराजा लाखन पासी के बारे में

🙏🏻🙏🏻

( The Pasi Landlords )

       कुंवर प्रताप रावत


#maharaja_lakhan_pasi #Lucknow #Pasi_history #महाराजा_लाखन_पासी

सोमवार, 28 मार्च 2022

वीरांगना ऊदा देवी पासी


 वीरांगना ऊदा देवी पासी 


ऊदा देवी का जन्म 14 अप्रैल 1829 में लखनऊ के समीप स्थित उजिरावां गांव में पासी परिवार में हुआ था.भारतीय समाज में पासी विभिन्न जातियों मे एक वीर और आत्मस्वाभिमान जाति है यह जाति वीर और लड़ाकू जाति के रूप में भी जानी जाती थी. इसी वातावरण में उदा देवी का पालन-पोषण हुआ. जिसे इतिहास की रचना करनी होती है, उसमें कार्यकलाप औरों से न चाहते हुए भी अलग हो ही जाते हैं.


जैसे-जैसे उदा बड़ी होती गई, वैसे-वैसे वह अपने हमउम्रों का नेतृत्व करने लगी. सही बात कहने में तो उदा पलभर की भी देर नहीं करती थी. अपनी टोली की रक्षा के लिए तो वह खुद की भी परवाह नहीं करती थी. खेल-खेल में ही तीर चलाना, बिजली की तेजी से भागना उदा के लिए सामान्य बात थी.


सन् 1764 ई. भारतीय इतिहास में निर्णायक वर्ष था. इसी वर्ष बक्सर में अंग्रेजों, बंगाल में नवाब मीर कासिम, अवध में नवाब शुजाउद्दौला और मुगल बादशाह शाह आलम की संयुक्त सेना को परास्त कर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध कर दी थी. इस युद्द के बाद अवध भी अंग्रेजों की परोक्ष सत्ता के अधीन आ गया और अंग्रेजों ने अवध को नचोड़ना शुरू कर दिया जिससे उसकी स्थिति दिन-ब-दिन जर्जर होती गई. सन् 1856 में अवध का अंग्रेजी राज्य में विलय कर लिया गया और नवाब वाजिद अली शाह को नवाब के पद से हटा कर कलकत्ता भेज दिया गया. सन् 1857 ई. में भारतीयों ने अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता का बिगुल बजा दिया. इस समय अवध की राजधानी लखनऊ थी और वाजिद अली शाह की बेगम हजरत महल और उनके अल्पवयस्क पुत्र बिरजिस कादिर ने अवध की सत्ता पर अपना दावा ठोंक दिया.


अवध की सेना में एक टुकड़ी पासी सैनिकों की भी थी. इस पासी टुकड़ी में बहादुर युवक मक्का पासी भी था. मक्का पासी का विवाह उदा से हुआ था. जब बेगम हजरत महल ने अपनी महिला टुकड़ी का विस्तार किया तब उदा की जिद और उत्साह देखकर मक्का पासी ने उदा को भी सेना में शामिल होने की इजाजत दे दी. शीघ्र ही उदा अपनी टुकड़ी में नेतृत्वकर्ता के रुप में उभरने लगी.


10 मई 1857 मेरठ के सिपाहियों द्वारा छेड़ा गया संघर्ष शीघ्र ही उत्तर भारत में फैलने लगा एक महीने के भीतर ही लखनऊ ने भी अंग्रजों को चुनौती दे दी. मेरठ, दिल्ली, लखनऊ, कानुपर आदि क्षेत्रों में अंग्रेजों के पैर उखड़ने लगे. बेगम हजरत महल के नेतृत्व में अवध की सेना भी अंग्रेजों पर भारी पड़ी. किंतु एकता के अभाव व संसाधनों की कमी के कारण लम्बे समय तक अंग्रेजों का मुकाबला करना मुमकिन नहीं हुआ और अंग्रेजों ने लखनऊ पर पुनः नियंत्रण पाने के प्रयास शुरू कर दिए. दस जून 1857 ई. को हेनरी लॉरेंस ने लखनऊ पर पुनः कब्जा करने का प्रयास किया. चिनहट के युद्ध में मक्का पासी को वीरगति की प्राप्ति हुई. यह उदा देवी पर वज्रपात था किंतु उदा देवी ने धैर्य नहीं खोया. वह अपनी टुकड़ी के साथ संघर्ष को आगे बढ़ाती रही.


नवंबर आते-आते यह तय हो गया था कि अब ब्रिटिश पुनः लखनऊ पर कब्जा कर ही लेंगे. भारतीय सैनिक अपनी सुरक्षा के लिए लखनऊ के सिकंदराबाग में छुप गए. किंतु इस समय लखनऊ पर कोलिन कैम्पबेल के नेतृत्व में हमला हुआ. उदा देवी बिना लड़े हार मानने को तैयार नहीं हुई. अंग्रेजी सेना ने सिकंदराबाग को चारो ओर से घेर लिया. उदा देवी सैनिक का भेष धारण कर बंदूक और कुछ गोला बारूद लेकर समीप के एक पेड़ पर चढ़ गई और अंग्रेजों पर गोलियां बरसाने लगी. उदा की वीरता देख शेष सैनिक भी अंग्रेजों पर टूट पड़े. काफी समय तक अंग्रेजों को पता ही नहीं चला कि उन पर कहां से गोलियां चल रही हैं. जब उदा देवी की गोलियां ख़त्म हो गयी तब कैम्पबेल की दृष्टि उस पेड़ पर गई जहां काले वस्त्रों में एक मानव आकृति फायरिंग कर रही थी. कैम्पबेल ने उस आकृति को निशाना बनाया. अगले पल ही वह आकृति मृत होकर जमीन पर गिर पड़ी. वह व्यक्ति लाल रंग की कसी हुई जैकेट और गुलाब रंग की कसी हुई पैंट पहने था नीचे गिरते ही एक ही झटके में जैकेट खुल चुकी थी समीप जाने पर कैम्पबेल यह देखकर हैरान रह गया कि यह शरीर वीरगति प्राप्त एक महिला का था.वह महिला पुराने माडल की दो पिस्तौलों से लैस थी अतःउसके पास गोलियां नही बची थी बारलेस को जब मालूम हुआ कि वह पुरुष नहीं महिला है यह जानकर वह जोर से रोने लगा। यह घटना 16 नवंबर सन् 1857 ई. की है संग्राम में क्रांती के दीवानों ने रेजिडेंशी को लखनऊ को घेर लिया था अंग्रेजों को बचने का कोई रास्ता दिखाई नहीं पड़ रहा था यह देख कर ईस्ट इंडिया कंपनी ने जनरल कैम्पबेल था। जिसे कानपुर से लखनऊ जाते समय रास्ते में तीन बार अमेठी और बंथरा के पासी वीरों से हारकर वापस लौट जाना पड़ा था। अब सोचना है कि एक ओर अंग्रेजी फौज के साथ बंदूक थी दूसरी ओर लाठियां, कितने पासी जवान तीन बार में मारे गये होंगे। जब कैम्पबेल चौथी बार आगे बढ़ने सफल रहा तो उसने सबसे पहले महाराजा बिजली पासी के किले ही अपनी छावनी बनाई थी। 


जब तक उदा देवी जीवित रहीं तब तक अंग्रेज सिकंदराबाग पर कब्जा नहीं कर सके थे. उदा देवी के वीरगति प्राप्त करते ही सिकंदराबाग अंग्रेजों के अधीन आ गया. अंग्रेजी विवरणों में उदा देवी को ‘ब्लैक टाइग्रैस’ कहा गया. दुःख व क्षोभ की बात यह है कि भारतीय इतिहास लेखन में उदा देवी के बलिदान को वो महत्व नहीं दिया गया जिसकी वो अधिकारिणी हैं।

पासी जाति के सगठनों द्वारा 14 अप्रैल को वीरांगना उदा देवी की जयंती धूम धाम से मनाई जाती है

#पासी_इतिहस #Pasi_history 

मंगलवार, 7 सितंबर 2021

#राजा_माहे_पासी Raja Mahe Pasi


 महाराजा माहे पासी का इतिहास """""""""""""""""""""""""""""""""""""""""

चौदहवीं शताब्दी में,  रायबरेली जनपद के ऊंचाहार #नगर_पालिका से थोड़ी दूर पर #गोड़वा रोहनियाँ नामक स्थान पर लगभग सन 1350 ईo में  एक छोटा सा गणराज्य था जिसके शासक थे माहे पासी। माहे पासी एक पराक्रमी योद्धा थे। उनमें अपार संगठन शक्ति थी। उन्होंने अपने बल पर एक बलशाली सेना इकट्ठा की और गोड़वा रोहनियाँ में अपना स्वतंत्र राज्य खड़ा किया। 

और अपने राज्य का निरन्तर विस्तार किया। लेकिन सन 1350 का वो दौर था जब  विदेशी मुस्लिम आक्रमण निरन्तर भारत पर होता रहता था। और आए दिन  मुस्लिम आक्रमण कारी भारत के हिन्दू राजाओं को हरा कर उनका राज्य अपने कब्जे में कर लेते थे  यह इस लिए संभव हो पा रहा था क्युकी भारत के हिन्दू शासक एक नहीं थे वो आपस में लड़ कर अपनी ताकत को नष्ट कर देते थे इसी बात का फायदा मुस्लिम आक्रमणकारी उठाते थे । महाराजा माहे पासी ने अपने राज्य की सुरक्षा के लिए तरह तरह........ की योजनाएं बनाई उन योजनाओं से काफी हद तक उनका राज्य मुस्लिम आक्रमणकारियों से सुरक्षित भी रहा पूरे राज्य के सीमाओं के चारो तरफ सुरक्षा बढ़ा दिया कहा जाता है कि महाराजा माहे पासी ने राज्य की सुरक्षा के लिए एक ये भी घोसडा करा दिया कि हर घर से नौजवान युवा अपने राज्य की सीमाओं पर पहरा देगा जिससे मुस्लिम शासक गोड़वा राज्य पर आक्रमण करना तो दूर उधर आंख उठाकर देखने की हिम्मत नहीं करते थे 

इस घोसडा से कई लोग सहमत नहीं थे सबसे जायदा दिक्कत  एक मुराइन को हुई उस मुराइन ने पड़ोस  के नेवारी राज्य के राजपूत राजा के पास शिकायत तक लेकर पहुंच गई और नेवारी के राजपूत राजा से बोली नेवारी नरेश के रहते गोड़वा की प्रजा दुखी है उस मुराइन ने बोला महाराज माहे पासी ने गोड़वा राज्य के सीमाओं पर  सुरक्षा के नाम पर सभी के घर से  युआओ को सीमाओं पर खड़ा कर दिया है एक नौजवान बच्चा  मां बाप से दूर सीमाओं पर खड़ा है एक पिता अपने बीवी बच्चों से दूर सीमाओं पर खड़ा है हमारी आप से गुजारिश है कि आप माहे पासी को हरा कर गोड़वा पर आधिपत्य जमा ले हम आपकी जिंदगी भर चाकरी करेंगे

नेवारी के राजपूत राजा बोले मुराइन महेपासी को हराना इतना आसान नहीं है उनका भांजा प्रसुराम (परसराम) बहुत ही बल साली है उसके अकेले लड़ने से ही हम उनसे जीत नहीं सकते इससे गुस्सा त्याग दो ये भ्रम निकाल दो  

मुराइन ने एक बार फिर  नेवारी के राजपूत राजा को ललकारते हुए उनके बहादुरी और क्षत्रित्व पर प्रसन्न चिन्ह लगा दिया इससे क्रोधित होकर नेवारी के राजपूत राजा माहे पासी से युद्ध के लिए तैयार हो गए अगले ही दिन  गोड़वा और नेवारी राज्य में  भयंकर युद्ध  हुआ महेपासी के भांजे परसराम पासी और नेवारी के राजपूत राजा के बीच द्वंद युद्ध हुआ जिसमें परसराम पासी ने  नेवारी के राजा को मार डाला और नेवारी के एक बड़े भू भाग पर माहे पासी का कब्जा हो गया  और उस मुराइन को कैद करके कारागार में डाल दिया माहेपासी और उनके भांजे परसराम पासी की वीरता के चर्चे हर राज्य में होने लगे इसी कारण लगभग 24 साल तक कोई भी मुस्लिम आक्रमणकारी गोड़वा राज्य की तरफ आंख उठकर नहीं देखता था एक बार वह समय भी आया जब 

कुछ स्थानीय गद्दारों की मुखविरी के कारण दिल्ली के सुल्तान फिरोज शाह तुगलक की सेनाओं से राजा माहे पासी का जबरदस्त मुकाबला हुआ जिसमें राजा माहे पासी और परसराम पासी बहुत  बहादुरी से लडे और उन मुस्लिम आक्रमणकारियों के छक्के छुड़ा दिया इसी युद्ध में महाराजा माहे पासी वीरगति को प्राप्त हो गये। यह युद्ध 1374 ई. में हुआ था। राजा माहे पासी का राज्य 1350 ई. से लेकर 1374 ई. तक रहा। उनके किले के भग्नावशेष आज भी गोड़वा रोहनियाँ में बिखरे पड़े हैं। संरक्षण के अभाव में पासियों की यह ऐतिहासिक धरोहर नष्ट होने की कगार पर है। उनके किले पर आज भी पासी समाज एकत्रित होता है। और उनके दर्शन करता है आज उनके किले पर उनकी एक मूर्ति का भी अनावरण किया गया है 


(पुस्तक रचना की जमीन  में )

1 (माहे परसू की कथा )

और 

2 (पासी मुराइंन का झगड़ा) के  नाम से अंकित है 


यह अवधी भाषा में  ग्रन्थावली है


लेख (भारत पासी भारशिव)

सोमवार, 16 अगस्त 2021

अलाउद्दीन खिलजी और पासियो का संडीला संघर्ष

अलाउद्दीन खिलजी और पासियो का संडीला संघर्ष 
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इल्तुतमिश ( 1210-1226 )A.D

शासक बनने के बाद इल्तुतमिश को अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ा। 1215 ई. से 1217 ई. के बीच इल्तुतमिश के प्रबल  प्रतिद्वन्दी  एल्दौज और कुबाचा के साथ-साथ अवध की निर्भीक पासी जाति जो अपने अड़ियल रुख के लिए जानी जाती थी,उनसे संघर्ष करना पड़ा, और संडीला जल्द हीं तुर्कों के कब्जे में कुछ समय के लिए जरुर चला गया था , लेकिन पासियो ने अवध में विद्रोह जारी रखा --- पासियो ने पुन: काकोरी मलिहाबाद और संडीला को कब्जे में कर लिया क्योंकि संडीला एक बहुत विशाल किला और दुर्ग था जो पश्चिम से हो रहे आक्रमण को रोकने के लिए एक सैनिक छावनी थी जिसे राजा सलिहा पासी ने बसाया था । 

अवध गजेटियर अनुसार : - The whole of north Hardoi was a jungle in his time.  In this forest Piháni , which means the place of concealment , was founded by Sadr Jahan .  Prior to this Bilgram had been founded in the reign of Altamsh (1217 A.D.) by Shekh Muhammad Faqih.  Sandila had been conquered from the Pasis in the reign of Alld - ud - din Khilji , but till Akbar's reign these settlements had been mere outposts - military garKhilji.

अर्थात :- पूरा उत्तर हरदोई एक जंगल था।  इस जंगल में पिहानी, जिसका अर्थ है छिपने का स्थान, की स्थापना सदरजहाँ ने की थी।  इससे पहले बिलग्राम की स्थापना अल्तमश (1217 ई.) के शासनकाल में शेख मुहम्मद फकीह ने की थी।  संडीला को अल्ल्ड-उद-दीन खिलजी के शासनकाल में पासियों से जीत लिया गया था,

अर्थात् इसका अर्थ यह निकलता है की इल्तुतमिश  
के समय भी और आगे भी अवध का हरदोई क्षेत्र पासियो के चिराग तले सुरक्षित था पर संघर्ष जारी था । अंग्रेज विद्वानों ने इस बात का वर्णन किया है कि यहां की आदिम जातियां ( पासियो ) ने मुस्लिम शासकों को बड़ा तंग कर के रखती थी ।

भारतीय इतिहास में आखिर क्यों नही पढ़ाया जाता पासियो के संघर्षों को ....... आखिर क्यों...!

उस समय अवध का पश्चिम उत्तर कोना पासियो के मजबूत पकड़ में था  

आगे चलकर भयंकर युद्ध हुए पासियो का साम्राज्य पतन की ओर हो चला , अपनी जड़ बिठाने के लिए राजपूतों ने भी चाल चले उनके  पास सुनहरा मौका था ,उनसे समझौते कर लिऐ और मुस्लिम ताकतों के साथ मिलकर राजपुतो ने पासियो को उनके ही सम्राज्य से उखाड़ फेंका 

लेकीन यह अड़ियल पासी जात कहा मानने वाली मौका पाते ही विरोध और विद्रोह कर देती , जंगलों में शरण लेकर कच्चे मिट्टी के किले बनाकर रहने लगी , सीमित उपलब्धता में राज करते रहे । पासी जाति जो आदतन युद्धरत जाति रही वह अब गुरिल्ला युद्ध करने लगे ।
अब पहले जैसे ये ताकत में ना रहे , आगे के 50 सालो तक मातम छाया दिखाई देता है........ कुछ सालो बाद पासियो को अपनी शक्ति का पुन: आभास होता है अड़ियल राजा लहरी पासी के नेतृत्व को पाकर पासियो  ने कि एक शाक्तिशाली सेना तैयार कर ली थी  वह एक दिलेर निर्भीक योद्धा था जो तुर्की के लिए काल के समान था ........।

शुरुवाती प्रतिरोध में फिरोज शाह तुगलक से बिकट युद्धों के बाद पासी परास्त हुए और  लहरपुर से  ( 1370AD के दशक में )  निष्काशित हुए ,जहा पासियो को जीत कर उनके जगह को फिरोजशाह तुगलक ने नाम बदलकर तुगलकाबाद कर दिया 

लेकिन फिर...

       30 साल बीत गए.... 

फिर अचानक 1398 में तुगलकों को कमजोर होता देख सही मौके के तलाश में पासियो ने सीतापुर खीरी में विद्रोह कर दिया और इस बार विद्रोह का केंद्र बना लहर पुर जिसका राजा लहरी पासी था ..
                                             फिर पासियो को अपनी शक्ति का पुन: आभास  हुआ और फिर  1398 AD में लहरी पासी के नेतृत्व में पासियो ने बगावत कर दी तुगलको के खिलाफ़ युद्ध अभियान छेड़ दिया और सीतापुर सहित उत्तर अवध को आज़ाद करा लिया , अपनी पुरखों के जमीनों पर पुन: काबिज होकर तुगलकाबाद का नाम बदलकर अपनें नाम से लहर पुर रख दिया, राजा की पदवी धारण कि और 18 वर्ष तक राज किया । राजा लहरी पासी का समय काल गजेटियर अनुसार ( 1398-1416 )AD 

आगे जारी रहेगा....................!

The Pasi Landlords

  @Kunwar-Post 📯

 

बुधवार, 31 मार्च 2021

29 मार्च 1850 : बाराबंकी के पासी तालुकेदार गंगा बख्श रावत ने अंग्रेजो को हराया था

 31 मार्च 1850 विजय दिवस : राजा गंगाबख्श रावत 

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29 मार्च सन 1850; को पासी तालुकेदार गंगा बख्श रावत ने अंग्रेजो को बराबंकी देवा कसिमगंज के निकट भेटई किले के युद्ध में अंग्रेजो को करारी शिकस्त दी थीं , अंग्रेज सेनापति इलडरटोन को मार गिराया , उस युद्ध के याद में पासी समाज उस दिन को विजय दिवस के रुप में 31 मार्च को याद करता और मनाता है 


29 मार्च सन् 1850 : ( विजय दिवस )




29 मार्च सन् 1850 को झुक रही दोपहरी में अचानक किले की एक रक्षक पासी टुकड़ी प्रकट हुई जिसने कैप्टन विल्सन की फौज़ पर भंयकर आक्रमण कर दिया अप्रत्याशित रूप से आई आफत अंग्रेजो को महाकाल के समान लगी ।

                कैप्टन विल्सन की विक्षिप्त अवस्था को देख , नवाबअली की दोनों नाइन पाउण्डर तोपों ने किले पर गोली बारी शुरू कर दी । पश्चिम की ओर से कैप्टन बारलों ने फौरी कार्रवाही के स्वरूप दस गोले चला दिए । कै बारलों की अग्रिम टुकड़ी के सूबेदार मेजर ने द्वार पर एक बनावटी झपट्टा किया । 

                                   किले की रक्षक टुकड़ी बड़े इत्मिनान के साथ अंदर लुप्त हो गई । सूबेदार मेजर ने उसका पीछा किया । कैप्टन विल्सन ने फौरन कैप्टन बोयलू और अपने बिखरे हुएं आदमियों को एकत्र करके सूबेदार मेजर के पीछे हो लिए । चिन्तित और उत्तेजित कैप्टन विल्सन अंग्रेजी अफसरों व सैनिकों को खोज खोज कर , नाइन पाउण्डर गन के साथ बाह्य द्वार से भीतरी भाग में ढकेल दिया । यह फौरी कार्यवाही कैप्टन विल्सन ने सुरक्षित स्थान प्राप्त करने की लालसा में की थी । 

       किले से पासी सैनिकों की एक रक्षक टुकड़ी पुनः अवतरित हुई और बाँसों से बने प्रवेश द्वार के फाटकों को बन्द करके लुप्त हो गई । इन फाटकों की यह विशेषता थी कि- गोलियों की बाढ़ भी इनको अधिक क्षति नहीं पहुंचा पाती थी । बन्द कपाटों को खोलने के लिए अन्दर और बाहर के अंग्रेज़ सैनिकों ने प्रयत्न करने शुरू कर दिए , कुछ तो नाइन पाउण्डर गन लेने के लिए दौड़ पड़े । उस समय यह कहावत पूरी तरह चरितार्थ हो गई


        कि " खिसयानी बिल्ली खम्भा नोचे " 

 

                                 अचानक किले से दनादन तीरों व गोलियों की बरसात होने लगी । , बाह्य द्वार का ऊपरी भाग भी आग बरसाने लगा । अंग्रेज़ी सेना के छक्के छूट गए । अब तक की मुठभेड़ों में अंग्रेज़ी सेनाओं को सामने की लड़ाई से पाला पड़ा था , उसमें दाँव - पेंच या छद्म युद्धनीति का प्रयोग हिन्दुस्तानियों के द्वारा नहीं के बराबर था । पासी जाति गुरिल्ला युद्ध करने में माहिर थी जों उनके परंपरागत युद्ध करने की आदतों में शमिल था ऊपर से राजा गंगाबक्स रावत ने जिस युद्धनीति का प्रयोग किया उससे अपने आप में एक कुशल योद्धा साबित हुआ । गंगाबक्स रावत की युद्धशैली में पासी समाज के वीर योद्धाओं की जाँबाज़ी और फुर्तीलेपन का अपना एक विशेष महत्व था । 

                   अंग्रेज़ों के समक्ष पुनः यह याद ताजा हो गई कि- पासी जाति युद्धनीति में पारंगत है । अपने में वीरता , दृढ़ता और निभर्रता का अमरपाठ समायोजित किए हुए है । सारी परिस्थितियों को देखते हुए यह तो स्पष्ट था कि कैप्टन विल्सन की फंसी सैनिक टुकड़ी न तो आगे बढ़ सकती थी , न तो बाहर निकल सकती थी पासियो ने ऐसा घेरा बनाया की अंग्रेज थर्राने लगे उनकी सांसे मानो थम सी गई थी , उनको बस एक हि सहारा था कि बची हुई बाहरी अंग्रेज सैन्य टुकड़ी ही इस दयनीय दशा से उद्धार करेगी , बौखलाए हुए अंग्रेज किले की दीवारों पर गोलीबारी कर रहे थे ताकि आगे का कोई रास्ता मिल जाए परन्तु यह सभी कोशिशें बेकार हुई जा रही थी । गोलाबारी की ध्वनि सुनते ही बाहरी मोर्चाबन्दियों की विभिन्न सैनिक टुकड़ियों के अधिनायकों ने किले के कमज़ोर दिखने वाले हिस्से पर आक्रमण करने के आदेश दे दिए ।

                दोनों ओर की घनघोर गोलाबारी से सम्पूर्ण वातावरण आतंकित हो उठा था । अर्थहीन गोलियों की तड़तड़ाहट , तोपों की गड़गड़ाहट ही अंग्रेजों की विपुल युद्ध सामग्री का हास किए जा रही थी । पश्चिम की ओर से कैप्टन बारलो के सैनिको के अंदर पहुंचने के साहसिक प्रयास सीढ़ियों की लघुता कारण नाकामयाब और बुरी तरह घायल हो रहे थे । पूर्व की ओर से नवाबअली किसी भाँति किले के भीतर पहुँच कर भीतरी खाई के घेरे में कैद हो गया था । नवाबअली के बहुत से साथी निरूउद्देश्य प्रयासों में खाइयों में गिर पड़े थे । कैप्टन विल्सन भी घेरे में फंसे पड़े थे । पूर्व से सफ़शीकन ख़ान के प्रयास भी सफल नहीं हो पा रहे थे , इनके लिए भीतरी खाई एक बड़ा अवरोध उत्पन्न किए हुए थी । किले के भीतर प्रवेश करने के प्रयत्न में अंग्रेजी सैनिकों की एक विचाराधीन संख्या काम में आ रही थीं । कैप्टन विल्सन के किले में पहुंचते ही , 45 मिनटों में अपनी पार्टी की सारी युद्ध सामग्री समाप्त कर दी थी । इस पूरे अभियान और साहसिक प्रयत्नों के क्षणों में लेफ्टिनेंट इलडरटोन ने अपने कौशल और वीरता का अनूठा परिचय दिया । इलेंडरटोन का यह परिचय अंग्रेजों के लिए एक दुःखद गौरवमय था ।

                             परन्तु वास्तविकता इससे परे थी पासी राजा गंगाबक्स रावत ने अपने चक्रव्यूह में कैप्टन विल्सन को फाँस कर जो भयंकर गोरिल्ला युद्ध किया , वह युद्धशास्त्र में अपना एक अलग ही स्थान बनाए हुए है किले की रक्षक सेना अंग्रेजों को गोलियों से भून रही थी और उनके अदृश्य भयंकर तीर गाजर - मूली की तरह काट रहे थे । अंग्रेजी सेना में भगदड़ मची थी । लोग त्राहि - त्राहि कर रहे थे । हताश व सहमे , भयभीत निगाहों से इधर - उधर अपने - अपने छुपने का स्थान ढूंढने में गतिशील थे । ऐसे में लेफ्टीनेन्ट इलडरटोन की गर्दन में गंगाबक्स रावत का सनसनाता हुआ भयंकर तीर लगा , उससे गिर कर , इलडरटोन ने अपनी इहलीला समाप्त कर दी थी । कैप्टन विल्सन और बायलू के अर्थहीन गोला बारूद की बरबादी उनकी साथियों के मौतें , किले में प्रवेश करने के प्रयासों की असफलताएँ सामने दिखाई पड़ रही थी । 

              अंग्रेन सेनानायक अपनी एक तोप गन और साथियों की लाशों को छोड़ कर पीछे की ओर हटने लगे । पासी वीर गंगाबक्स रावत इस बात से पूरी तरह अवगत थे , कि विपुल युद्धसामग्री और असंख्य सैनिक सहायतार्थ अंग्रेज लखनऊ से आ ही रहे होंगे , जिनके सामने स्वयं और अपने सैनिकों की आहुति देना बुद्धिमत्ता न होगी । सहायतार्थ ब्रिटिश सेना के आने के पूर्व ही अपनी युद्ध योजना बना लेनी है । पासी वीर गंगाबक्स रावत ने अपने सभी बड़े / छोटे गढ़ों की सेनाओं को पूर्व के घने जंगलों के रास्ते , जिधर गालिब जंग की टुकड़ी तैनात थी आधी रात में बाहर भेज दिया 


कैप्टन विल्सन को लखनऊ से एक बड़ी सेना के चलने की सूचना प्राप्त हो गई थी । जिसमें अश्वारोहियों और पैदल सेना के साथ भारी तोपें भी हैं । सेना के आने पर छोड़ी गई तोप ढूंढ ली गई थी । लेफ्टिनेंट इलडरटोन का शरीर अंतिम संस्कार के लिए लखनऊ भेज दिया गया था 

      

                               इस आक्रमण में ब्रिटिश सेना के 19 सैनिक मारे गए , 57 घायल हुए , गंगाबक्स रावत के भेटई किले में 11 आदमी मरे और 19 घायल हुए थे । " गंगाबक्स रावत अपनी सैन्य शक्ति के साथ गालिब जंग की तैनात टुकड़ी की ओर मुँह मोड़ा है । कैप्टन विल्सन को यह समाचार मिलते ही , उसके हाथों से तोते उड़ गए अंग्रेज़ी सेना में हड़कम्प मच गया । उनका यह विचार कि अब शेर ( गंगाबक्स रावत ) जंगल में फंस चुका है । पर वह जंगल से निकल कर उस इलाके की ओर जा रहा है , जिसे अंग्रेज़ी सरकार बिल्कुल सुरक्षित समझती थी । जितनी देर अंग्रेज़ी सेना को योजना बनाने में लगे , उतने में तो वह शेर ( गंगाबक्स रावत ) कहाँ से कहाँ पहुँच चुका था । अंग्रेज़ सेनानियों को पता चल गया कि शिकार हाथ से निकल चुका है । उस झल्लाहट भरे क्षणों में पासी सैनिकों के गोरिल्ला युद्ध की याद आते ही अंग्रेज़ सैनिकों में सिहरन पैदा हो जाती थी ।  


नीचे अंग्रेज द्वारा सन 1858 में बनाया गया कसीमगंज के भेटई किले की तस्वीर जहां पासी बसते थे जों पासियो द्वारा देश के लिए किए गए संघर्ष की गवाह थी 

इस किले को बाद मे अंग्रेजो ने मटियामेट कर दिया था 


इस दिन को पासी समाज विजय दिवस के रुप मनाता आया है विजय दिवस पर पूरे। समाज को हार्दिक शुभकामनाएं एवं यह आशा है की पूरा समाज इस गौरव को याद करे और दिलो में संजोए ।


उक्त लेख - लेखक स्व श्री के के रावत जी के किताब से लिए गए है 


एवं स्लीमन की डायरी का अध्ययन कर यह व्रतांत आपके समक्ष प्रस्तुत किया हूं


The Pasi Landlords

( कुंवर प्रताप रावत )


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