बुधवार, 19 दिसंबर 2018

पासी राजा सुहेलदेव - Pasi Raja Suheldev

राष्ट्र-रक्षक महाराजा सुहेलदेव पासी

1001 ई0 से लेकर 1025 ई0 तक महमूद गजनवी ने भारतवर्ष को लूटने की दृष्टि से 17 बार आक्रमण किया तथा मथुरा, थानेसर, कन्नौज व सोमनाथ के अति समृद्ध मंदिरों को लूटने में सफल रहा। सोमनाथ की लड़ाई में उसके साथ उसके भांजे सैयद मसूद गाजी ने भी भाग लिया था। 1030 ई0 में महमूद गजनवी की मृत्यु के बाद उत्तर भारत में इस्लाम का विस्तार करने की जिम्मेदारी मसूद ने अपने कंधों पर ली, लेकिन 10 जून, 1034 ई0 को बहराईच
की लड़ाई में वहाँ के शासक महाराजा सुहेलदेव के हाथों वह डेढ़ लाख जेहादी सेना के साथ मारा गया। इस्लामी सेना की इस पराजय के बाद भारतीय शूरवीरों का ऐसा आंतक विश्व में व्याप्त हो गया कि उसके बाद आने वाले 150 वर्ष तक किसी भी आक्रमणकारी को भारतवर्ष पर आक्रमण करने का साहस ही नहीं हुआ।
ऐतिहासिक सूत्रों के अनुसार श्रावस्ती नरेश राजा प्रसेनजित ने बहराईच राज्य की स्थापना की थी जिसका प्रारंभिक नाम भरवाईच था। इसी कारण इन्हें बहराईच नरेश के नाम से भी संबोधित किया जाता था। इन्हीं महाराजा प्रसेनजित को माघ माह की बसंत पंचमी के दिन 990 ई0 में एक पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई जिसका नाम सुहेलदेव रखा गया। अवध गजेटीयर के अनुसार इनका शासन काल 1027 ई0 से 1077 तक स्वीेकार किया गया है। वे जाति के पासी थे, राजभर अथवा जैन, इस पर सभी एकमत नहीं हैं। महाराजा सुहेलदेव का साम्राज्य पूर्व में गोरखपुर तथा पश्चिम में सीतापुर तक फैला हुआ था। गोंडा, बहराईच, लखनऊ, बाराबंकी, उन्नाव व लखीमपुर इस राज्य की सीमा के अंतर्गत समाहित थे। इन सभी जिलों में राजा सुहेलदेव के सहयोगी पासी राज्य करते थे जिनकी संख्या 21 थी। ये थे- 1 रायसाहब 2 रायरायब 3 अर्जुन 4 भग्गन 5 गंग 6 मकरन 7 शंकर 8 करन 9 बीरबल 10 जयपाल 11 श्रीपाल 12 हरपाल 13 हरकरन 14 हरखू 15 नरहर 16 भल्लर 17 जुधारी 18 नारायण 19 भल्ला 20 नरसिंह तथा 21 कल्याण। ये सभी वीर राजा महाराजा सुहेलदेव के आदेश पर धर्म एवं राष्ट्ररक्षा हेतु सदैव आत्मबलिदान देने के लिए तत्पर रहते थे। इनके अतिरिक्त राजा सुहेलदेव के दो भाई हरदेव व मल्लदेव भी थे जो अपने भाई के ही समान वीर थे तथा पिता की भंाति उनका सम्मान करते थे।
महमूद गजनवी की मृत्यु के पश्चात् पिता सैयद सालार साहू गाजी के साथ एक बड़ी जेहादी सेना लेकर सैयद सालार मसूद गाजी भारत की ओर बढ़ा। उसने दिल्ली पर आक्रमण किया। एक माह तक चले इस युद्ध ने सालार मसूद के मनोबल को तोड़कर रख दिया वह हारने ही वाला था कि गजनी से बख्तियार साहू, सालार सैफुद्दीन, अमीर सैयद एजाजुद्दीन, मलिक दौलत मिया, रजव सालार और अमीर सैयद नसरूल्लाह आदि एक बड़ी घुड़सवार सेना के साथ मसूद की सहायता को आ गए। पुनः भयंकर युद्ध प्रारंभ हो गया जिसमें दोनों ही पक्षों के अनेक योद्धा हताहत हुए। इस लड़ाई के दौरान राय महीपाल व राय हरगोपाल ने अपने घोड़े दौड़ाकर मसूद पर गदे से प्रहार किया जिससे उसकी आंख पर गंभीर चोट आई तथा उसके दो दांत टूट गए। हालाँकि ये दोनो ही वीर इस युद्ध मेें लड़ते हुए शहीद हो गए लेकिन उनकी वीरता व असीम साहस अद्वितीय था।
मेरठ का राजा हरिदत्त मुसलमान हो गया तथा उसने मसूद से संधि कर ली। यही स्थिति बुलंदशहर व बदायूँ के शासकों की भी हुई। कन्नौज का शासक भी मसूद का साथी बन गया। अतः सालार मसूद ने कन्नौज को अपना केंद्र बनाकर हिंदुओं के तीर्थ स्थलों को नष्ट करने हेतु अपनी सेनाएँ भेजना प्रारंभ किया। इसी क्रम में मलिक फैसल को वाराणसी भेजा गया तथा स्वयं सालार मसूद सप्तऋषि (सतरिख) की ओर बढ़ा। मिरआते मसूदी के विवरण के अनुसार सतरिख (बाराबंकी) हिंदुओं का एक बहुत बड़ा तीर्थस्थल था। एक किवंदती के अनुसार इस स्थान पर भगवान राम व लक्ष्मण ने शिक्षा प्राप्त की थी। यह सात ऋषियों का स्थान था, इसलिए इस स्थान का सप्तऋषि पड़ा, जो धीरे-2 सतरिख हो गया।
सालार मसूद विलग्राम, मल्लावा, हरदोई, संडीला, मलिहाबाद, अमेठी व लखनऊ होते हुए सतरिख पहुंचा। उसने अपने गुरु सैयद इब्राहीम बारा हजारी को धंुधगढ़ भेजा क्योंकि धुंधगढ़ के किले में उसके मित्र- दोस्त मोहम्मद सरदार को राजा रायदीन दयाल व अजय पाल ने घेर रखा था। इब्राहीम बाराहजारी जिधर से गुजरते गैर मुसलमानों का बचना मुश्किल था। बचता वही था जो इस्लाम स्वीकार कर लेता था। आइनये मसूदी के अनुसार-
निशान सतरिख से
लहराता हुआ बाराहजारी का।
चला है धुंधगढ़ को
काफिला बाराहजारी का
मिला जो राह में मुनकिर
उसे दोजख में पहुँचाया।
बचा वह जिसन ेकलमा
पढ. लिया बाराहजारी का।
इस लड.ाई में राजा दीनदयाल व तेजसिंह बड.ी ही वीरता से लड.े लेकिन वीरगति को प्राप्त हुए। परंतु दीनदयाल के भाई राय करनपाल के हाथों इब्राहीम बाराहजारी मारा गया। कड़े के राजा देवनारायन और मानिकपुर के राजा भोजपात्र ने एक नाई को सैयद सालार मसूद के पास भेजा कि वह विष से बुझी नहन्नी से उसके नाखून काटे, ताकि सैयद सालार मसूद की इहलीला समाप्त हो जाये। लेकिन इलाज से वह बच गया। इस सदमे से उसकी मां खुतुर मुअल्ला चल बसी। इस प्रयास के असफल होने के बाद कडे मानिकपुर के राजाओं ने बहराईच के राजाओं को संदेश भेजा कि हम अपनी ओर से इस्लामी सेना पर आक्रमण करें और तुम अपनी ओर से। इस प्रकार हम इस्लामी सेना का सफाया कर देंगे। परंतु संदेशवाहक सैयद सालार के गुप्तचरों द्वारा बंदी बना लिए गए। इन संदेशवाहकों में दो ब्राह्मण और एक नाई थे। ब्राह्मणों को तो छोड़ दिया गया लेकिन नाई को फांसी दे दी गई। इस भेद के खुल जाने पर मसूद के पिता सालार साहु ने एक बड़ी सेना के साथ कडे मानिकपुर पर धावा बोल दिया। इन राजाओं को बंदी बनाकर सतरिख भेज दिया गया। वहां से सैयद सालार मसूद के आदेश पर इन राजाओं को सालार सैफूद्दीन के पास बहराइच भेज दिया गया। जब बहराइच के राजाओं को इस बात का पता चला तो उन लोगों ने सैफूद्दीन को घेर लिया। इस पर सालार मसूद उसकी सहायता हेतु बहराइच की ओर आगे बढ़े। इसी बीच उनके पिता सालार साहू का निधन हो गया।
बहराइच के पासी राजा भगवान सूर्य के उपासक थे। बहराइच में सूर्यकूंड पर स्थित भगवान सूर्य के मूर्ति की वे पूजा करते थे। उस स्थान पर प्रत्येक वर्ष ज्येष्ठ मास में प्रथम रविवार को, जो बृहस्पतिवार के बाद पड़ता था एक बड़ा मेला लगता था। यह मेला सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण तथा प्रत्येक रविवार को भी लगता था। बहराइच को पहले ब्रह्माइच के नाम से जाना जाता था। सालार मसूद के बहराइच आने के समाचार पाते ही बहराइच के राजा गण- महाराजा सुहेलदेव के नेतृत्व में लामबंद हो गये। ये राजागण बहराइच शहर के उत्तर की ओर लगभग आठ मील की दूर पर भकला नदी के किनारे अपनी सेना सहित उपस्थित हुए। अभी ये युद्ध की तैयारी कर ही रहे थे कि सालार मसूद ने उन पर रात्रि आक्रमण (शबखून) कर दिया। मगरिब की नमाज के बाद अपनी विशाल सेना के साथ वह भकला नदी की ओर बढ़ा और उसने सोती हुई हिंदु सेना पर आक्रमण कर दिया। इस अप्रत्याशित आक्रमण में दोनों ओर के अनेक सैनिक मारे गए लेकिन बहराइच की इस पहली लड़ाई में सालार मसूद विजयी रहा। पहली लडाई मेें परास्त होने के पश्चात पुनः अगली लड़ाई हेतु हिंदु सेना संगठित होने लगी उन्होंने रात्रि आक्रमण की संभावना पर ध्यान नहीं दिया। उन्होंने राजा सुहेलदेव के परामर्श पर आक्रमण के मार्ग में हजारों विषबुझी कीलें अवश्य धरती मेें छिपा कर गाड़ दी। ऐसा रातों रात किया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि जब मसूद की घुड़सवार सेना ने पुनः रात्रि आक्रमण किया तो वे इनकी चपेट में आ गए। हालाकि हिंदु सेना इस युद्ध में परास्त हो गई लेकिन इस्लामी सेना के एक तिहाई सैनिक इस युक्तिप्रधान युद्ध में मारे गए। भारतीय इतिहास में इस प्रकार युक्तिपूर्वक लड़ी गई यह एक अनूठी लड़ाई थी। दो बार धोखे के शिकार होने के बाद हिंदु सेना सचेत हो गई तथा महाराजा सुहेलदेव के नेतृत्व में निर्णायक लड़ाई हेतु तैयार हो गई। कहते हैं इस युद्ध में प्रत्येक हिंदु परिवार से युवा सम्मिलित हुए। महाराज सुहेलदेव के शामिल होने से हिन्दुओं का मनोबल बढ़ा हुआ था। लड़ाई का क्षेत्र चिंतौरा झील से हठीला और अनारकली झील तक फैला हुआ था। जून, 1034 ई0 को हुई इस लड़ाई में सालार मसूद ने दाहिने पार्श्व (मैमना) की कमान मीरनसरूल्ला को तथा बायें (मैसरा) की कमान सालार रज्जब को सौंपी तथा स्वयं केंद्र (कल्ब) की कमान संभाली तथा भारतीय सेना पर आक्रमण करने का आदेश दिया।
इससे पहले इस्लामी सेना के सामने हजारों गायों व बैलों को छोड़ा गया ताकि हिंदू सेना प्रभावी आक्रमण न कर सके, लेकिन महाराजा सुहेलदेव पासी  की सेना पहले ही उसकी होशियारी समझ गयी थी इस लिए महाराजा सोहेलदेव पासी ने सुवरो को आगे करके युद्ध लड़ा सुवरो को आगे देख गाय  भागने लगी और गाजी की सेना भी भागने लगी गाये के भगा दौड़ से गाजी की सेना काफी जख्मी हो गयी  महाराजा सोहेलदेव पासी की सेना भूखे सिंहों की भांति इस्लामी सेना पर टूट पडे़। मीर नसरूल्लाह बहराइच के उत्तर बारह मील की दूरी पर स्थित ग्राम ढिकोली के पास मारे गए। सैयद सालार मसूद के भांजे सालार मिया रज्जब बहराइच के पूर्व तीन कि0मी0 की दूरी पर स्थित ग्राम शाहपुर जोत युसुफ के पास मार दिए गए। इनकी मृत्यु 8 जून, 1034 ई0 को हुई। अब भारतीय सेना ने राजा करण के नेतृत्व में इस्लामी सेना के केंद्र पर आक्रमण किया जिसका नेतृत्व सालार मसूद स्वयं कर कहा था। उसने सालार मसूद को घेर लिया। इस पर सालार सैफुद्दीन अपनी सेना के साथ उनकी सहायता को आगे बढे़ भयंकर युद्ध हुआ जिसमेें हजारों लोग मारे गए। स्वयं सालार सैफूद्दीन भी मारा गया उसकी समाधि बहराइच-नानपारा रेलवे लाइन के उत्तर बहराइच शहर के पास ही है। शाम हो जाने कारण युद्ध बंद हो गया और सेनाएं अपने शिविरों में लौट गई। 10 जून, 1034 को महाराजा सुहेलदेव के नेतृत्व मेें हिंदु सेना ने सालार मसूद गाजी की फौज पर तूफानी गति से आक्रमण किया। इस युद्ध में सालार मसूद गाजी अपनी घोड़ी पर सवार होकर बड़ी वीरता के साथ लड़ा लेकिन अधिक देर तक ठहर न सका। राजा सुहेलदेव पासी ने शीघ्र ही उसे अपने बाण का निशाना बना लिया और उनके धनुष द्वारा छोड़ा गया एक विष बुझा बाण सालार मसूद केे गले में आ लगा जिससे उसका प्राणांत हो गया। इसके दूसरे ही दिन शिविर की देखभाल करने वाला सालार इब्राहीम भी बचे हुए सैनिकों के साथ मारा गया। सैयद सालार मसूद गाजी को उसकी डेढ़ लाख इस्लामी सेना के साथ समाप्त करने बाद महाराजा सुहेलदेव ने विजय पर्व मनाया और इस महान विजय के उपलक्ष्य में कई पोखरे भी खुदवाए। वे विशाल ‘विजय स्तंभ’ का भी निर्माण कराना चाहते थे लेकिन वे इसे पूरा न सके। संभवतः यह वही स्थान है जिसे एक टीले के रूप में श्रावस्ती से कुछ दूरी पर इकोना- बलरामपुर राजमार्ग पर देखा जा सकता है!

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2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सुंदर भाई, जो भी तथ्य दे, उसका थोड़ा रेफरेंस अवश्य दे, भाई।
    पासी जयवीर सिंह

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