शुक्रवार, 31 जुलाई 2020

महाराजा #सुहेलदेव पासी Maharaja #Suheldev Pasi

राष्ट्ररक्षक : महाराजा सुहेल देव पासी 1001 ई . से 1034 ई.
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पासी राजा सुहेल देव को अपनी किताब में उतारने के लिए मै डॉ मेजर परशुराम गुप्त जी को कोटि कोटि धन्यवाद देता हूं 

जिसमें का थोड़ा अंश मै आपको सामने लिख रहा हूं हूबहू उनकी लिखित लाइन

लेखक = डॉ मेजर परशुराम गुप्त
पुस्तक =  राष्ट्रीय गौरव सम्राट हेम चन्द्र `विक्रमादित्य`

1001 ई. 1034 ई.तक महमूद गजनवी ने भारतवर्ष को लूटने की दृष्टि से 17 बार आक्रमण किया तथा मथुरा , कन्नौज व सोमनाथ के अति समृद्ध मंदिरों को लूटने में सफल रहा । सोमनाथ की लड़ाई में उसके साथ उसके भानजे सैयद सालार समूद गाजी ने भी भाग लिया । #1030 ई . में महमूद गजनवी की मृत्यु के बाद उत्तर भारत में इसलाम का विस्तार करने की जिम्मेदारी समूद ने अपने कंधों पर ली , लेकिन 10 जून , #1034 ई . को बहराइच की लड़ाई में वहीं के शासक महाराजा सुहेल देव पासी के हाथों वह डेढ़ लाख जेहादी सेना के साथ मारा गया । इस्लामी सेना की इस पराजय के बाद भारतीय शूरवीरों का ऐसा आतंक विश्व में व्याप्त हो कि उसके बाद आनेवाले 150 वर्षों तक किसी भी आक्रमणकारी को भारतवर्ष पर आक्रमण करने का साहस ही नहीं हुआ । ऐतिहासिक सूत्रों के अनुसार श्रावस्ती नरेश राजा प्रसेनजित ने बहराइच राज्य की स्थापना की थी , जिसका प्रारंभिक नाम भरवाइच था । इस कारण इन्हें ' बहराइच नरेश ' के नाम से भी संबोधित किया जाता था । इन्हीं महाराजा प्रसेनजित को माघ माह की बसंत पंचमी के दिन 990 ई . को एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई , जिसका नाम सुहेल देव रखा गया । अवध गजेटीयर के अनुसार इनका शासन काल 1027 ई . से 1077 ई . तक स्वीकार किया गया है । वे जाति के पासी थे , राजभर अथवा जैन , इस पर सभी एकमत नहीं हैं । महाराज सुहेल देव का साम्राज्य पूर्व में गोरखपुर तथा पश्चिम में सीतापुर तक फैला हुआ था । गोंडा , बहराइच , लखनऊ , बाराबंकी , उन्नाव व लखीमपुर - इस राज्य की सीमा के अंतर्गत समाहित थे । इन सभी जिलों में राजा सुहेल देव के सहयोगी पासी , राजभर राजा राज्य करते थे , जिनकी संख्या 21 थी । ये थे 1. रायसायब , 2. रायरायब , 3. अर्जुन , 4. भग्गन , 5. गंग , 6. मकरन , 7. शंकर , 8. करन , 9. बीरबल , 10. जयपाल , 11. श्रीपाल , 12 , हरपाल , 13. हरकरन , 14. हरख , 15. नरहर , 16 . भल्लर , 17. जुधारी , 18. नारायण , 19 , भल्ला , 20. नरसिंह तथा 21. कल्याण । ये सभी वीर राजा महाराजा सुहेल देव के आदेश पर धर्म एवं राष्ट्र - रक्षा हेतु सदैव आत्मबलिदान देने के लिए तत्पर रहते थे । इनके अतिरिक्त राजा सुहेल देव के दो भाई - बहरदेव व मल्लेदव भी थे , जो अपने भाई के ही समान वीर थे तथा पिता की भाँति उनका सम्मान करते थे ।

सैयद सालार मसूद गाजी  क्रूर आक्रांता एवं लाखों कि सेना 
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महमूद गजनवी की मृत्यु के पश्चात् पिता सैयद सालार साहू गाजी के साथ एक बड़ी जेहादी सेना लेकर सैयद सालार मसूद गाजी भारत की ओर बढ़ा । उसने दिल्ली पर आक्रमण किया । एक माह तक चले इस युद्ध ने सालार मसूद के मनोबल को तोड़कर रख दिया । वह हारने ही वाला था कि गजनी से बख्तियार साहू सालार सैफुदीन अमीर सैयद एजाजुद्दीन , मलिक दौलत मियाँ , रजव सालार और अमीर सैयद नसरूल्लाह आदि एक बड़ी घुड़सवार सेना के साथ मूसद की सहायता को आ गए । पुनः भयंकर युद्ध प्रारंभ हो गया , जिसमें दोनों ही पक्षों के अनेक योद्धा हताहत हुए । इस लड़ाई के दौरान राय महीपाल व राय हरगोपाल ने अपने घोड़े दौड़ाकर मसूद पर गदे से प्रहार किया , जिससे उसकी आँख पर गंभीर चोट आई तथा उसके दो दाँत टूट गए ।हालांकि यह दिनों वीर थे लड़ते शहीद हो गए  हालाँकि ये दोनों ही वीर इस युद्ध में लड़ते हुए शहीद हो गए, लेकिन उनकी वीरता व असीम साहस अद्वितीय था । 

मेरठ और कन्नौज के राजाओं का  झुकना 
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मेरठ का राजा हरिदत्त मुसलमान हो गया तथा उसने मसूद से संधि कर ली । यही स्थिति बुलंदशहर व बदायूँ के शासकों की भी हुई । कन्नौज का शासक भी मसूद का साथी बन गया । अत : सालार मसूद ने कन्नौज को अपना केंद्र बनाकर हिंदुओं के तीर्थ स्थलों को नष्ट करने हेतु अपनी सेनाएँ भेजना प्रारंभ किया । इसी क्रम में मलिक फैसल को वाराणसी भेजा गया तथा स्वयं सालार मसूद सप्तऋषि ( सतरिख ) की ओर बढ़ा । मिरआते मसूदी के विवरण के अनुसार सतरिख ( बाराबंकी ) हिंदुओं का एक बहुत बड़ा तीर्थ स्थल था । एक किवदंती के अनुसार इस स्थान पर भगवान् राम व लक्ष्मण ने शिक्षा प्राप्त की थी । यह सात ऋषि का स्थान था , इसीलिए इस स्थान का नाम सप्तऋषि पड़ा था , जो धीरे - धीरे सतरिख हो गया । सालार मसूद विलग्राम , मल्लावा , हरदोई , संडीला मलिहाबाद , अमेठी व लखनऊ होते हुए सतरिख पहुँचा । उसने अपने गुरु सैयद इब्राहिम बारा हजारी को धुंधगढ़ भेजा , क्योंकि धुंधगढ़ के किले में उसके मित्र दोस्त मोहम्मद सरदार को राजा रायदीन दयाल व अजय पाल ने घेर रखा था । इब्राहिम बाराहजारी जिधर से गुजरते गैर - मुसलमानों का बचना मुश्किल था । बचता वही था , जो इसलाम स्वीकार कर लेता था । 

   आईन - ए - मरादी के अनुसार --

         निशान सतरिख से लहराता हुआ बाराहजारी का । 
           चला है धुंधगढ़ को काफिला बाराहजारी का । 
           मिला जो राह में मुनकिर उसे दोजख में पहुँचाया ।
           बचा वह जिसने कलमा पढ़ लिया बाराहजारी का ।

इस लड़ाई में राजा दीनदयाल व तेजसिंह बड़ी ही वीरता से लड़े , लेकिन वीरगति को प्राप्त हुए । परंतु दीनदयाल के भाई राय करनपाल के हाथों इब्राहिम बाराहजारी मारा गया । कड़े के राजा देव नारायन और मानिकपुर के राजा भोजपत्र ने एक नाई को सैयद सालार मसूद के पास भेजा कि वह विष से बुझी नहन्नी से उसके नाखून काटे , ताकि सैयद सालार मसूद की इहलीला समाप्त हो जाए , लेकिन इलाज से वह बच गया । इस सदमे से उसकी माँ खुलर मुअल्ला चल बसी । इस प्रयास के असफल होने के बाद बड़े मानिकपुर के राजाओं ने बहराइच के राजाओं को संदेश भेजा कि हम अपनी ओर से इसलामी सेना पर आक्रमण करें और तुम अपनी ओर से । इस प्रकार हम इसलामी सेना का सफाया कर देंगे । परंतु संदेशवाहक सैयद सालार के गुप्तचारों द्वारा बंदी बना लिये गए इन संदेशवाहकों में दो ब्राह्मण और एक नाई थे । ब्राह्मणों को तो छोड़ दिया गया , लेकिन नाई को फाँसी दे दी गई ।

गाजी का मानिकपुर पर धावा
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इस भेद के खुल जाने पर मसूद के पिता सालार साहू ने एक बड़ी सेना के साथ बड़े मानिकपुर पर धावा बोल दिया । दोनों राजा देवनारायण व भोजपात्र बड़ी वीरता से लड़े , लेकिन परास्त हुए । इन राजाओं को बंदी बनाकर सतरिख भेज दिया गया । वहाँ से सैयद सालार मसूद के आदेश पर इन राजाओं को सालार सैफुद्दीन के पास बहराइच भेज दिया गया । जब बहराइच के राजाओं को इस बात का पता चला तो उन लोगों ने सैफुद्दीन को घेर लिया । इस पर सालार मसूद उसकी सहायता हेतु बहराइच की ओर आगे बढ़े । इसी बीच उनके पिता सलार साहू का निधन हो गया । बहराइच के पासी राजा भगवान् सूर्य के उपासक थे । बहराइच में सूर्य कुंड पर स्थित भगवान् सूर्य की मूर्ति की वे पूजा करते थे । उस स्थान पर प्रत्येक वर्ष ज्येष्ठ मास के प्रथम रविवार जो वृहस्पतिवार के बाद पड़ता था , एक बड़ा मेला लगता था । यह मेला सूर्य ग्रहण , चंद्र ग्रहण तथा प्रत्येक रविवार को भी लगता था यह परंपरा काफी प्राचीन थी । बालार्क ऋषि के भगवान् सूर्य के प्रताप से इस कुंड में स्नान करनेवाले कुष्ठ रोग से मुक्त हो जाया करते थे । 

बहराइच का युद्ध और उसकी वीरगाथाएं
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बहराइच को पहले ' ब्रह्माइच ' के नाम से जाना जाता था । सालार मसूद के बहराइच आने का समाचार पाते ही बहराइच के राजा गण - राजा रायब , राजा सायब , अर्जुन , भीखन , गंग , शंकर , करन , बीरबल , जयपाल , श्रीपाल , हरपाल , हरक्ष , जोधारी व नरसिंह महाराज सुहेल देव के नेतृत्व में लामबंद हो गए । ये राजा गण बहराइच शहर के उत्तर की ओर लगभग आठ मील की दूरी पर भकला नदी के किनारे अपनी सेना सहित उपस्थित हुए । अभी ये युद्ध की तैयारी कर ही रहे थे कि सालार मसूद ने उन पर रात्रि - आक्रमण ( शबखून ) कर दिया । मगरिब की नमाज के बाद अपनी विशाल सेना के साथ वह भकला नदी की ओर बढ़ा और उसने सोती हुई हिंदू सेना पर आक्रमण कर दिया । इस अप्रत्याशित आक्रमण में दोनों ओर के अनेक सैनिक मारे गए , लेकिन बहराइच की इस पहली लड़ाई में सालार मसूद विजयी रहा । पहली लड़ाई में परास्त होने के पश्चात् पुनः अगली लड़ाई हेतु हिंदू सेना संगठित होने लगी , लेकिन उन्होंने रात्रि - आक्रमण की संभावना पर ध्यान नहीं दिया । उन्होंने राजा सुहेल देव के परामर्श पर आक्रमण के मार्ग में हजारों विषबुझी कीलें अवश्य धरती में छिपाकर गाड़ दीं । ऐसा रातोरात किया गया । इसका परिणाम यह हुआ कि जब मसूद की घुड़सवार सेना ने पुनः रात्रि आक्रमण किया तो वे इनकी चपेट में आ गए । हालाँकि हिंदू सेना इस युद्ध में भी परास्त हो लेकिन इसलामी सेना के एक - तिहाई सैनिक इस युक्ति प्रधान युद्ध में मारे गए । भारतीय इतिहास में इस प्रकार युक्तिपूर्वक लड़ी गई यह एक अनूठी लड़ाई थी । दो बार धोखे का शिकार होने के बाद हिंदू सेना सचेत हो गई तथा महाराज सुहेल देव के नेतृत्व में निर्णायक लड़ाई हेतु तैयार हो गई । कहते हैं कि इस युद्ध में प्रत्येक हिंदू परिवार से युवा हिंदू इस लड़ाई में सम्मिलित हुए । महाराज सुहेल देव के शामिल होने से हिंदुओं का मनोबल बढ़ा हुआ था । लड़ाई का क्षेत्र चित्तौरा झील से हठीला और अनारकली झील तक फैला हुआ था । #10जून_1034 ई . में हुई इस लड़ाई में सालार मसूद ने दाहिने पार्श्व ( मैमना ) की कमान मीर नसरुल्लाह को तथा बाएँ पार्श्व ( मेसरा ) की कमान सालार रज्जब को सौंपा तथा स्वयं केंद्र ( कल्व ) की कमान संभाली तथा भारतीय सेना पर आक्रमण करने का आदेश दिया । इससे पहले इस्लामी सेना के सामने हजारों गायों व बैलों को छोड़ा गया , ताकि हिंदू सेना प्रभावी आक्रमण न कर सके , लेकिन महाराजा सुहेल देव की सेना पर इसका कोई भी प्रभाव न पड़ा । वे भूखे सिंहों की भाँति इस्लामी सेना पर टूट पड़े । मीर नसरुल्लाह बहराइच के उत्तर में बारह मील की दूरी पर स्थित ग्राम दिकोली के पास मारे गए । सैयद सालार मसूद के भानजे सालार मियाँ रज्जब बहराइच के पूर्व तीन किमी . की दूरी पर स्थित ग्राम शाहपुर जोत यूसुफ के पास मार दिए गए । इनकी मृत्यु 8 जून , 1034 ई . को हुई । अब भारतीय सेना ने राजा करन के नेतृत्व में इस्लामी सेना के केंद्र पर आक्रमण किया , जिसका नेतृत्व सालार मसूद स्वयं कर रहा था । उसने सालार मसूद को घेर लिया । इस पर सालार सैफुद्दीन अपनी सेना के साथ उनकी सहायता को आगे बढ़े । भयंकर युद्ध हुआ , जिसमें हजारों लोग मारे गए । स्वयं सालार सैफुद्दीन भी मारा गया 

सैयद सालार मसूद गाजी कि समाधि
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शाम हो जाने के कारण युद्ध बंद हो गया और सेनाएँ अपने शिविरों में लौट गई । 10 जून , 1034 को महाराजा सुहेल देव के नेतृत्व में हिंदू सेना ने सालार मसूद गाजी की फौज पर तूफानी गति से आक्रमण किया । सैयद गाजी  बड़ी वीरता के साथ लड़ा , लेकिन अधिक देर तक ठहर न सका । पासी राजा सुहेल देव ने शीघ्र ही उसे अपने बाण का निशाना बना लिया और उनके धनुष द्वारा छोड़ा गया एक विष बुझा बाण सालार मसूद के गले में आ लगा , जिससे उसका प्राणांत हो गया । इसके दूसरे ही दिन शिविर की देखभाल करनेवाला सालार इब्राहिम भी बचे हुए सैनिकों के साथ मारा गया । सैयद सालार मसूद गाजी को उसकी डेढ़ लाख इस्लामी सेना के साथ समाप्त करने के बाद महाराजा सुहेल देव ने विजय पर्व मनाया और इस महान् विजय के उपलक्ष्य में कई पोखरे भी खुदवाए । वे एक विशाल ' विजय स्तंभ ' का भी निर्माण कराना चाहते थे , लेकिन वे इसे पूरा न कर सके । संभवत : यह वही स्थान है , जिसे एक टीले के रूप में श्रावस्ती से कुछ दूरी पर इकोना - बलरामपुर राजमार्ग पर देखा जा सकता है ।

(किताब का संदर्भ बस यहीं तक )

नोट - महाराजा सुहेलदेव को  अवध गजेटियर के अनुसार पासी जाति का स्वीकार किया गया राजभर व जैन पर एकमत नहीं है यह किताब इस बात की पुष्टि करती है 

महाराजा सुहेलदेव पासी के बारे में लिखने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद डॉ परशुराम गुप्त जी का स्वागत एवं अभिनन्दन सारी बाते इस किताब से संदर्भित है । ये बात हो गई इस किताब और लेखक की आगे बढ़ते है ।

#10_जून_1034_विजय_दिवस
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पासी राजा सुहेल देव और राजपासी राजा कंस  1030 ई.-1034 ई.
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जैसा कि ऊपर आपने राजा सुहेल देव पासी के बारे में पढ़ा 
और जाना  बहुत सी चीजे है जो अभी बाकी सी है जैसे
लखनऊ का संघर्ष , रजपासी राजा कंस । जो उस समय थे और जिनको कोई नहीं जानता है । क्योंकि सैयद सलार मसूद गाजी कि आधी सेना लखनऊ में ही ख़तम हुई थी । और लखनऊ के पासियो  के संघर्ष  में कोई नहीं जानता है इसलिए उन वीर रणबांकुरो को भी  जानना जरूरी है ।

राजपासी  राजा कंस 
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राजा                   -       राजपासी राजा कंस       
समयकाल            -    ( 980 - 1031)  ई.
राजगद्दी               - कंसमण्डी  ( लखनऊ )
क्षेत्र                     -   अवध ( उत्तरप्रदेश )
प्रथम युद्ध            - उन्नाव- संडीला सीमा क्षेत्र
दृतिया बर्बर युद्ध    - कंसमण्डी की लड़ाई
तृतीया युद्ध         -  ( कैथोलि-खातौली ) निकट कंसमण्डी
वीरगति              -  1031 ई.  ( कैथोलि - खतौली )
     
राज्य-सीमायें       -   उन्नाव , मलिहाबाद , संडीला ककोरी, हरदोई ,सीतापुर , पश्चिमी लखनऊ आदि ।

11 सदी के शुरुआती समय में महाप्रतापी राजा कंस जो जाति के राजपासी थे जिनको राज्य अपने पुरखो से  मिली थी उनका शासन लखनऊ के  काकोरी (मलिहाबाद ) के निकट कंवलाहार कंसमण्डी ( कंसमण्डप) में था
राजपासी राजा कंस  का समयकाल 980 ईस्वी से 1031 इस्वी तक माना गया है
जब भारत पर विदेशी आक्रमणकारियों के खतरे मंडरा रहे थे और जब सैयद सालार मसूद गाजी का जेहाद ( धर्मयुद्ध ) छेड़ा था और पूरे भारत को फतेह करना चाहता था
उसकी लालसा पूरे भारत को जीतकर इस्लाम फैलाना था जब पंजाब को जीतते हुवे दिल्ली जीतकर कन्नौज पर हमला किया कन्नौज का राजपूत राजा बचने के लिए इस्लाम कबूल कर लिया ,जेहादियो की सेना में भी शामिल हो गया ,आगे उसे रोकने टोकने वाला कोई ना मिला लेकिन जब गंगा पार कर अवध में दाखिल हुआ तो उसकी बर्बरता चरम पे थी जिधर से  भी गुजरता  हिदुओ का बचना मुश्किल था जब तक कि वह इस्लाम कबूल ना कर ले ,उसके आतंक के चर्चे हर जगह फैल गए  लोगों में त्राहि त्राहि मच गई जहाँ सैयद मसूद गाजी की सवालाख  जेहादियों सेना थी ।

लखनऊ के पासियो का बिकट संघर्ष
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वही अवध में रजपासियो  छोटे छोटे राजाओ के छोटे गडराज्य थे जो आपस मे मिलकर रहते थे और पश्चिम अवध  में राजपसियो का  शासन था जो अपने स्वतंत्र प्रवर्ति के लिए जाने जाते थे जो बेहद स्वाभिमानी ,और अड़ियल रुख वाले होते  थे जो बात बात पर म्यान से तलवार निकाल लिया करते थे
उन वीर रजपासियो  का शासन पूरे  पश्चिम अवध में उस समय था
सैयद सालार मसूद गाजी की जो विजय अभी तक हुवी थी उनमे से लखनऊ की  लड़ाई उसने कभी ख्वाब में भी नही सोचा था ,ना ही उम्मीद की थी
मसूद गाजी के लखनऊ में कदम रखते ही पहली लड़ाई कंसमण्डी के राजपासी राजा कंस से लड़नी पड़ी इस जबदरस्त मुकाबले में उसके दो सेनापति सैयद हातिम और  ख़ातिम  मारे गए
 मसूद गाजी जो सवा लाख से भी ज्यादा थे और राजपासी कुछ चंद हज़ार फिर भी अपने ताकत का लोहा मनवा लिया
राजा कंस से पहली लड़ाई उन्नाव और संडीला के किलो पर हुवी फिर उसके बाद जबरदस्त लड़ाई काकोरी मलिहाबाद पे हुवी इस भयानक युद्ध मे राजपासी राजा कंस के  हाथों से ककोरी निकल गया वँहा मुस्लिमों का कब्जा हो गया ।
सैयद गाजी ने  वँहा अपनी सैनिक अड्डा  बना लिया

सैयद  हातिम  और  खातिम 
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उसके बाद उसके दो सेनापति  सैयद  हातिम  और खातिम  ने राजा कंस की गद्दी ( सिंहासन ) कंसमण्डी पर हमला हुआ ये जबरदस्त लड़ाई हुवी यहाँ , तुर्को की हार निश्चित हो गयी लेकिन तब तक गाजी की हज़ारो घुड़सवार वँहा आ डटे
दुबारा मदद मिलने से गाजी का पलड़ा भारी पड़ने लगा ,लड़ाई लड़ते लड़ते रात हो गयी गाजी की सेना भारी पड़ने लगि तब जाकर राजा कंस ने सारी सेना किले के  अंदर बुला  ली और गुप्त सुरंगों से अपनी बाहरी मदद का इंतजार करने लगे क्योंकि पड़ोसी राजा भी उस समय मुश्किल में थे क्योंकि गाजी ने सारे आसपास के राजाओ पर एक  साथ हमला किया ताकि कोई राजा एक दूसरे की मद्दद ना कर सके इसमे कोई दो राय नही है कि गाजी एक कुशल युद्व नीति का धनी था ।
जब गाजी की सेना कंसमण्डी के किले को चारो तरफ  घेर ली और गोल गोल चक्कर काटने लगी थी उन लोगो ने किले के दरवाजे को तोड़ने और किलो पे चढ़ने की बहुत कोशिश की लेकिन किले पे मजबूत धनुषधारी राजपासी ने अपना कमाल दिखया उस समय राजपासियो के बनाये तीर पूरे भारत मे जाती थी और राजपासियो कि तीरंदाजी दुनिया मे मशहूर थी
वह युद्ध बड़ा भयानक था
वह रात में लड़ा गया युद्ध था  उसी युद्ध मे राजपासी राजा कंस ने तेल को गरम करवा कर बड़ी तरकीब से सैयद हातिम ख़ातिम पर डलवा दिया ,जिससे दोनो वंही तड़प तड़प के मर गया

सैयद हातिम और ख़ातिम के मरते ही मुसलमानो में भगदड़  मच गई और भाग खड़े हुवे वहाँ राजपासी राजा कंस की रात में जीत दर्ज हुवी
यह युद्ध कोई एक दो दिन का नही था फिर आगे चलकर राजा कंस का और युद्ध हुवे जहाँ कंसमण्डी से कुछ दूरी पर खातौली  ( कैथोलि) पर राजपासी राजा कंस वीरगति हुवे
ये युद्ध बड़ा ही भयानक और राजपसियो क बलिदान की गँवाह है जिहोने इस देश धर्म माटी के खातिर अपने प्राणो की आहूति दे दी जिनका नाम लेने वाला आज कोई नही है उन वीर राजपासियो के बलिदान के बारे में एक छोटी सी पेशकश आपतक लाया हूँ
और उस युद्ध मे मारे गए जेहादी आज भी मलिहाबाद में गंजशहीदा  में आज भी दफन है
और इस युद्ध के बाद जब गाजी आगे बढ़ा तो 2 साल बाद  राजा सुहेल देव पासी ने सैयद सालार गाजी को मार गिराया और उसके जेहाद पर लगाम लगा दी

ये है कहानी राजपासी राजा कंस की है जिन्होंने गाजी के  मारे जाने  से  2,3 साल पहले लखनऊ के संघर्ष की कहानी को बंया करती है  राजा सुहेल देव से पहले राजा कंस ने जो भयानक युद्ध किया था उससे उबरने में गाजी को सालो लग गए और अगली लड़ाई में गाजी बहराइच में मारा जाता है पासी राजा सुहेल देव के द्वारा 

 राजपासी कंस का संदर्भ -

 1. Lucknow monument 1989, p.37
2. ताजदारे ए अवध प.7.etc

राजपूतों और राजभर के फर्जी दावे 
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कुछ दिनों से देखा जा रहा है कि पासी राजा सुहेलदेव को राजभर एवं राजपूत बनाने की कोशिश की जा रही है 
आज से नहीं बहुत पहले से हो रहा है जिसकी शुरूवात कई दशक से ही हो रहा था  (1900-1950 ) ई. इस समय आर्य समाजियों ने कई सारी  जातियों को ब्राह्मण और क्षत्रियों की गोत्रों से जोड़कर उनका इतिहास लिखा ताकि उनका ब्राह्मणीकरण हो सके , वह अपने को ब्राह्मण समझ कर खुश रहे ताकि वास्तविक इतिहास का दर्पण ना कर सके , और ब्राह्मणों क्षत्रियों के मानसिक गुलाम बने रहे  , 1920 के दशक में पासी जाति की ब्राह्मण बताया जाने लगा , सिर्फ पासी है नहीं कई जातियां , जैसे , भंगी , चमार , अहीर , पासी और यहां तक भर जाति को भारद्वाज से जोड़कर उनको ऋषियों की संतान बताया गया बल्कि गोरखपुर के भर राजा भारद्वाज था 
और इस कार्य को अंजाम देने के लिए इन लोगों ने गजेटियर  और वेदों का सहारा लिया ताकि हर जाति को ब्राह्मण एंव  क्षत्रिय  बताया जा सके और उनका ब्रहमनिकरण किया जा सके और वह वास्तविक इतिहास से वंचित रहे और असली राजपूत एवं क्षत्रिय अपना वर्चस्व स्थापित किए रहे और और इसीलिए उन्होंने 1940 के दशक जैन राजा कहकर प्रचारित    किया और आगे चलकर 500 बीघा जमीन जो  (एक नाटक का हिस्सा रहा  )  राजपूतों द्वारा दी गई थी इसलिए दिया गया था कि आज अपना  साक्ष्य दिखा सकें भविष्य में आज वही कर रहे है  ।

और यह हर जगह या कहकर प्रचारित करवा रहे हैं  1960- 1970 दशक में मात्र  पासी जाति का वोट बैंक पाने के लिए राजा सुहेलदेव पासी बताया गया-
                           तो  मै आपको बता दूं ऐसा प्रचार करना हास्य पद है और षड्यंत्र की निशानी है अगर ऐसा होता  तो भला 1948 की पुस्तिका " पासी वीर महासभा" में राजा सुहेल देव पासी का जिक्र क्यों होता है  1970 से 40 साल पहले लिखी थी ।  
और 1940 के दशक लोग में बनी "पासी वीर दल"
अपनी कविताओं में राजा सुहेल देव पासी को क्यों गाता!! अगर यदि यह अस्मिता बाद में  बनी होती तो ,1970 के 40 साल पहले  पासियो में यह तथ्य विद्यमान क्यों होता ।

चलो अच्छा हुआ यह  पासी वीर महासभा की पुस्तिका अभी पड़ताल  में कुछ पुराने लोगों के यहां मिली  नहीं तो, ये लोग यह कहते 1970 की नहीं - नहीं 1940 में पासी का वोट बैक पाने के लिए उनको सुहेल देव पासी किय गया  था 😆😄😂 जबकि उस समय देश भी आज़ाद नहीं हुआ था  मतलब कुछ भी कर सकते है यह लोग 😆😁

तो षड्यंत्र कारी अपने दिमाग पर जोर डालिए  🤔🤔🤭 

" सत्य परेशान हो सकता है पराजित नहीं"

इसका मतलब साफ है कि राजा सुहेलदेव पासी को पासी समाज सदियों सदियों से अपना मानता है और अपनी जाति का बताता आया है और सेंसस ऑफ़ इंडिया और भारतीय विद्वानों के मतानुसार राजा सुहेलदेव पासी थे आज इसे षड्यंत्रकारी राजभर और राजपूत बताकर राजनीतिक लाभ उठाना चाहते हैं राजभर अक्सर भर का साक्ष्य दिखाता है  और राजभर साबित करने की कोशिश करता है जबकि भर पासी की अवध में 14 उपजाति में से एक है ।
                 और राजपूत जो दावा करता  उसका  भी करना निराधार है क्यूंकि उनको बैंस बताता है जबकि आपको पता होना चाहिए अवध के बैंस राजपूत की उत्पति भर और पासी से बताई जाती है कई राजपूतों के प्राचीन घराने पासी और भर के बताए जाते है दूसरी बात वह उनके जैन बता कर राजपूत बनाने की कोशिश कर रहे है वह भी गलत है जैन कोई जाति नहीं धर्म के नाम से जाना जाता है जिसकी वास्तविकता यह है कि कुछ  इतिहासकारों के मतानुसार राजा सुहेलदेव में जैन धर्म ग्रहण कर लिया था तो इससे उनकी जाति नहीं बदलती है उनका धर्म जरूर  बदल सकता है । तो साक्ष्यों के आधार पर और आज़ाद भारत के विद्वानों के मतानुसार राजा सुहेल देव पासी थे  

( The Pasi Landlords )

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गुरुवार, 30 जुलाई 2020

#पासी_जाति

1852 , लंदन में छपा Article पासी जाति के बारे में क्या कहती है जानिए पासी महाबलियों के बारे में 
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"The following notice of them is copied from an article on Oude, published in an Indian periodical in 1852"

 “ The Pasees live chiefly in the Banghor district in the northern part of this Kingdom. They are generally short, square shouldered, and well built. They are brave, active, and strong, and characterised - paradoxical as it may appear-as much by their honesty as for their extreme cunning and deceitfulness. They seldom till the soil: agri- culture is not their forte. They are professional thieves, and steal every thing they can lay a hand on, from a horse down to a pair of old shoes. In fighting, they make use of bows and arrows, and through their practice and strength, with unerring aim. Their bow has general- ly a double curve, and is made of horn. When using it, they support it on the ground and bend it with their toe and right hand. But

" their mode of warfare is chiefly a guerilla system" 

अंग्रेजो द्वारा प्रकाशित ( Indian periodical in 1852 ) नीचे इसका पन्ना संलग्न किया गया है -

1852 मैं छपा एक आर्टिकल था जो लंदन में पब्लिश हुआ था इसमें पासी जाति के बारे में उनकी कार्यशैली उनकी जीवन शैली के बारे में दर्शाया है यह आर्टिकल बताता है कि अवध में अट्ठा 1852  के समय काल में पासी अपने अपने क्षेत्र में बड़े शक्तिशाली थे यह हर क्षेत्रों में कार्यरत है इनका मुख्य ता पेशा सैनिक पेशा और चौकीदारी पेेेशा  था  

==दस्तावेजों के अनुवाद==

>>>> पासी मुख्यत: मध्यम कद के , चौकोर कंधे वाले, अच्छे तरह से निर्मित , अच्छी शारीरिक क्षमता वाले होते है।

>>>> इनके धनुष दोहरे घुमावदार ( double curve) वाले होते हैं जिनके निचले सिरे  सींग से  बने होते है जो बेहद घातक होते है 

>>>> #पासी छापामार युद्ध पद्धति में विश्वास रखते हैं ,  (छापामार युद्ध करने में  माहिर होते हैं) guerilla system 

>>>> अधिकतर #पासी_धनुष -बाणो से लैस होते थे ।

>>>> विभिन्न तालुकदारों के यहां सेना में शामिल थे

>>>> #पासी_जाति_कृषि में निपुण नहीं थे ( क्योंकि  इनका परंपरागत पेशा मात्र युद्ध करना और स्वतंत्र राज करना था )

>>>> पासी जाति के लोग #बहादुर साहसी निडर वफादार इमानदार थे ,वादे के पक्के  थे यह उनके लिए वफादार नहीं थे जो चालाकी करते थे ।

>>>> उस समय दो #खतरनाक पासी सरदार (  chief प्रमुख )  बड़े बड़े #तालुकदारो के यहां अपनी फौजों के साथ सेवा सशस्त्र अनुचर करते है।  

>>>> #अंग्रेज सेनापति एल्डरटोन भेटाई की लड़ाई (1850) में #पासियों के हाथों मारा गया था पासी मजबूती से किले की सुरक्षा कर रहे थे 
 #युद्ध_पासी #राजा_गंगा_बख्श रावत और अंग्रेजो के विरुद्ध हुआ था, जो  (बाराबंकी-देवा के पास कासिम गंज ,भेटाई) में पड़ता है 

( दोस्तों पर मैंने अनुवाद किया है यह एक आर्टिकल और गजट ईयर के अध्ययन के तहत अपनी बात रख रहा हूं ) 
ref.....Oude , it's Past and  its Future ,1859 page.no. 442.
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2.  पासी जाति के लोगों की असली फोटो ,1868 
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#पासी_जाति का #इतिहास | People of India ,1868 ,Passes caste, (oude)
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दुश्मन #अंग्रेजों द्वारा पासियों को नवाजे गए 
शब्द-आभूषण!!! 
(अंग्रेजों द्वारा प्रकाशित The People of India, Vol-II, 1868) 

>>> अच्छी शारीरिक बनावट और मजबूत कंधे वाले 

>>> बहादुर  

>>> फुर्तीले और 

>>> #शक्तिशाली

>>> उच्च कोटि के ईमानदार साथ ही साथ चतुर और धोखेबाज (क्योंकि पासी, अंग्रेजों के साथ कभी भी वफादारी नहीं करते थे मौका पाते ही उनको मार देते थे aur लूट लेते थे) 

>>> कभी-कभी खेती करने वाले । खेती  करना पासियों पेशा नही था। 

>>> युद्ध में तीर धनुष का प्रयोग करने वाले तथा अचूक निशानेबाज

>>> सत्यनिष्ठ कर्तव्यनिष्ठ और ईमानदार

>>> हथियारबंद और अनुशासित पासी,  सेनापतियो के रूप में तालुकदार और राजाओं की पहली पसंद । 

>>> राजमार्गों के लुटेरे , डकैत  राजमार्गों के लिए खतरनाक और नुकसान पहुंचाने वाले (ऐसा इसलिए कहा क्योंकि जब पासी तीर धनुष तलवार से मुकाबला करने में अक्षम हो गए तो इन अंग्रेजी सेना के काफिलो   पर गुरिल्ला आक्रमण करके लूटने का काम करते थे जिससे कि पासियों के पास गोला बम बारूद तथा उन्नत किस्म के हथियार आ जाते थे और बाद में उन्हीं हथियारों के साथ में अंग्रेजों के साथ मुकाबला करके उन्हें हराते थे उनको खत्म कर देते थे। ) 

Low cast  कहने का तात्पर्य --  अंग्रेजों द्वारा बनाए गए लोग कास्ट सारणी में 62 जातियां हैं जिसमें ओबीसी की समस्त जातियों का समावेश है इसमें कुर्मी यादव मौर्या इत्यादि सभी को मिलाकर हैं। 

बाकी आप खुद पढ़ सकते हैं इस पेज में। 

>>> फोटो में तलवार धारी  और लठैत पासियों का आप देख सकते हैं।

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#पासी जाति के बारे में ज्यादा से ज्यादा जाने के लिए हमारी यूट्यूब चैनल पर जाए और पुराने वीडियोस को देखिए और लेख कों पढ़िए 
 धन्यवाद।
#pasi_cast #pasi_itihas
( कुंवर प्रताप रावत )
The Pasi Landlord

बुधवार, 29 जुलाई 2020

क्रांतिकारी मदारी पासी

Eka movement और मदारी पासी : हरदोई का किसान विद्रोह
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परिचय :
              नाम = क्रांतिकारी मदारी पासी
            निवास = अहिरोरी क्षेत्र , हरदोई
        आंदोलन = एका आंदोलन ( 1920-1921)
          प्रांत = अवध (यूनाइटेड प्रोविंस ) , हरदोई , संडीला , बाराबंकी , सीतापुर, खीरी, रायबरेली, आदि।

संघर्ष :
              ब्रिटिश साम्राज्यवाद एवं अत्याचारी जमींदार और तालुकेदारों के खिलाफ , मजदूरों -किसानों के अधिकारों की लड़ाई , लड़ाई बराबरी की, अपने हक़ कि

निष्कर्ष : मदारी पासी के नेतृत्व में एका आंदोलन अन्य आंदोलन के मुकाबले हवा की गति से फैला फलस्वरूप जालिम तालुकेदार और जमींदार अपने घुटने के बल आ गए, वहीं तालुकेदारों और जमींदार मदारी पासी के शर्तों को मानने पर विवश हुए, दूसरे आंदोलन कर रहे लोग आकर्षित होकर एका में कूद पड़े , इस कारण वश यह आंदोलन विकराल रूप धारण कर पूरे उत्तर प्रदेश (united province's) में फ़ैल गया , इस आंदोलन से तंग आकर तालुकेदारों के साथ मिल ब्रिटिश सरकार ने पूरी ताकत से यह आंदोलन 1922 के अंत तक दबा दिया गया ,मदारी पासी को गिरफ्तार नहीं किया जा सका
उनकी मर्जी के बिना कोई उन तक पहुंच नहीं सकता था जबतक की वह खुद नहीं चाहते थे वह आजीवन स्वतंत्र रहे और भूमिगत हो गए ।

नोट 👉 - प्राप्त जानकारी 1922 के दौरान लिखे गए कुछ खास दस्तावेजों से ,1920 के दशक में छपे अखबारों के खबरों से उनके हरफनमौला गतिविधियों की जानकारी होती है

नोट 👉 - अभी तक प्राप्त जानकारी को और ज्ञानवर्धक बनाने एवं मदारी पासी जी को और भी ज्यादा जानने , समझने हेतु उनके पीछे के कड़ियों को जुटाने की कोशिश की गई है, कि कौन थे ? कहां के थे ? टूटी फूटी कड़ियों को जोड़ते हुए आज उनके बारे में रोचक तथ्यों से आप सभी को अवगत कराना है ।

     
               ।। अहिरोरी की घटना ।।


" Gazetteer of the Province of Oudh, Volume 2 , page ,244,245

1841 colonel low एक स्पेशल ऑडर पास करते है अहिरोरी के बागियों को गिरफ्तार करने के लिए यह इलाका पासियो से भरा हुआ है जिनको अंग्रेजो ने डकैत कहा ,....कैप्टन होलिंग 3 company infantry लेकर
विद्रोहियों का दमन करने आधी रात वहां पहुंच जाता है वहां संघर्ष शुरू होता है पर गोलियों के आवाज़ सुनकर , " गोहर " पाते ही पासी इक्कठा होकर बिखरे हुए अंग्रेज सिपाहियो को मार दिया........। "

ऊपर मैंने एक अहिरोरी की घटना 1841 का उदाहरण मात्र इसलिए दिया है ताकि आप समझ सके अहिरोरी अंग्रेजो के नज़र में विद्रोहियों का गढ़ था और वह इलाका पासियों से भरा हुआ था , और खास बात यह है कि मदारी पासी अहिरोरी क्षेत्र के ही थे यानी बागी पासियों के क्षेत्र से ..... बागीपना उनके खून में ही था ।
उन दिनों यह एक कारण मुख्य था किसी भी इंसान को बागी बनाना .......।
   
                    " मानो कि मदारी पासी का वायक्तिव कह रहा हो कि हमने हथियार छोड़े हैं चलाना नहीं भूले , और घड़ी आने पर हथियार उठा सकते हो "

मदारी पासी 1920 के समय लोगो के अनुभव अनुसार 70 साल हो चले थे यानी अपने वृद्धावस्था की ओर बढ़ रहे थे और उन बूढ़ी हड्डियों ने वह करके दिखा दिया जो कोई आम जन नहीं कर सका और साबित कर दिया कि " क्रांति की कोई उम्र नहीं होती " यह हिम्मत जरूर उनके पुरखों से उनको मिली थी ,जिनका दमन होते उन्होने बाल्यकाल में देखा होगा

              एका आंदोलन /eka movement

एका आंदोलन मदारी पासी के नेतृव में शुरू किया गया। यह आंदोलन इतना मजबूत और संगठित था कि इसमें हर एक जाति एवं धर्म के लोग शामिल हुए थे तालुकेदारों और जमींदारो के अत्याचार के खिलाफ युद्ध का बिगुल फूंक दिया

अवध किसान आंदोलन के नायकों में मदारी पासी का नाम बड़ी जबर तरीके से लिया जाता और याद किया जाता है वह गरीबों के मसीहा कहे जाते थे और सभी समाज नायक हैं। गरीब किसानों की बेदखली, लगान और अनेक गैर कानूनी करों से मुक्ति के लिए उन्होंने संगठित और विद्रोही आंदोलन चलाया था। जब दक्षिणी अवध प्रांत का उग्र किसान आंदोलन सरकार और जमींदारों के क्रूर दमन के कारण 1921 के मध्य में दबा दिया गया था तथा असहयोग आंदोलनकारियों द्वारा निगल लिया गया था, ठीक उसी समय, मदारी पासी का ‘एका आंदोलन’ हरदोई जिले के उत्तरी और अवध के पश्चिमी जिलों में 1921 के अंत में और 1922 के प्रारम्भ में प्रकाश में आया।

मदारी पासी की कोई भी तस्वीर उपलब्ध नहीं है। उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले के मोहनखेड़ा में उनकी स्मृति में चबूतरा का निर्माण किया गया है और ये एक छोटी सी कोशिश स्थानीय लोगो के अनुसार बताए गए हुलिए के आधार पर एक चित्र से बनाया गया है ( नीचे देखें )

        1922 के अखबारों के अनुसार जो बाते पता चलती है वह बेहद गदगद और जिज्ञासा पैदा करती है कि कितना आक्रामक रहा था एका आंदोलन और मदारी पासी का इतिहास

ब्रिटिश अखबार ‘द ग्लासगो हेराल्ड’, मार्च 10, 1922 और ‘द डेली मेल’, मार्च 10, 1922 ने यह समाचार छापा-

‘‘एका’’ का विकास हरदोई का एका आंदोलन निःसंदेह खतरनाक है लेकिन एक पल के लिए यह उतना चिंताजनक नहीं माना जा सकता । इसके अपील की नवीनता, अशिक्षित जनता की कल्पना है । मदारी पासी उसके नेताओं में से एक है जो चार आना प्रति की दर से टिकट बेच रहा है। माना यह जा रहा है कि यह धारक (टिकट धारक) को स्वराज मिलने पर भूमि का अधिकार प्रदान करेगा। इस आंदोलन को करने के लिए कुछ ब्राह्मणों द्वारा धार्मिक स्वरूप प्रदान किया गया है और व्यवहार में गंगा जल लेकर एकता कायम रखने का संकल्प लिया गया है। कई उदाहरण देखे गए हैं जब लोगों ने एका के शपथ को लेने से इन्कार किया लेकिन उन्हें शपथ लेने के लिए मजबूर किया गया । कुछ गांवों में एका वालों ने पंचायतों का गठन कर लिया है और एक गांव में, जहां राजनैतिक वातावरण एक हद तक उत्तेजित है, उन्होंने अपना कमिशनर, डिप्टी कमिश्नर, पुलिस अधीक्षक और शहर कोतवाल का गठन कर लिया है। असहयोग आंदोलनकारियों के भी कुछ हद तक इस नये आंदोलन के विकास पर चिंतित होने की सूचना है जो उनके नियंत्रण से बाहर हो रहा है । जमींदार आशंकित हैं कि नये ‘एका वालो’ं का उद्देश्य उन्हें उनकी रियासत से बेदखल करना है। वे सोच रहे हैं कि यह आंदोलन निश्चय ही क्रांति और अराजकता की ओर बढ़ रहा है। विश्वास किया जा रहा है कि जिले में जो एक हजार से ज्यादा गैर लाइसेंसी हथियार हैं "

   ANTI-LANDLORD MOVMENT IN INDIA

     TIMES " TELIGRAM , PER THE PRESS ASSOCIATION

" Lucknow Thursday : , Aika या एका आंदोलन के रूप में जाने जाना वाला, एक अधिक चिंता का कारण एवं चिंताजनक विषय है, जो कि संयुक्त राज्य के कुछ हिस्सों में तेजी से फैलता जा रहा है, यह एक कृषि आंदोलन है। इनके द्वारा विरोध जमींदार की अचूकता के खिलाफ है ..............नए आंदोलन का प्रमुख नेता एक मदारी पासी हैं , जो छोटी जाति के व्यक्ति हैं , जो पहले गाँव का चौकीदार था , जो अब खुद को राजा कह रहा है , जो कि 2000 और उससे जायदा की भीड़ के नेता के रूप में जिनके पास लठियाँ भाले और तीर - कमान हैं , गांवों को आतंकित करने जा रहा है । वहाँ भीड़ ने सभी पुरुषों को निष्ठा की शपथ पर हस्ताक्षर करने के लिए दबाव डाला है और अपनी फसलों और इमारतों को नष्ट कर आंदोलन में शामिल होने के लिए मजबूर किया । अभी तक किसी भी रक्तपात की सूचना नहीं है , लेकिन मदारी और उनके सहयोगियों निर्विवाद रूप से एक विस्तृत क्षेत्र के स्वामी प्रतीत हो रहे हैं , जिनमें से मुख्य केंद्र पूरे यूनाइटेड प्रोविन्स में हरदोई , संडीला और बाराबंकी है । वहाँ की स्थिति अब अराजक है । मदारी को गिरफ्तार करने का एक प्रयास विफल रहा है , यह स्पष्ट है कि अन्य नेताओं से निपटा आंदोलन को दबा दिया जाना चाहिए , क्योंकि पहले से ही पड़ोस के प्रांतों में इसी तरह के आंदोलन की अफवाहें हैं । "

ऊपर की ये लाइने जो ,ब्रिटिश अखबार ‘द ग्लासगो हेराल्ड’, मार्च 10, 1922 और ‘द डेली मेल’, मार्च 10, 1922 ने यह समाचार छापा था - उसके अनुवाद का छोटा सा अंश दिया है जिससे कि हमें मदारी पासी के कार्यशैली और कुशलता कि भांप सकते है

यह आंदोलन गरीब किसानों की बेदखली, लगान और अनेक गैर कानूनी करों से मुक्ति दिलाने के लिए,और जालिम तालुकेदारो, जमीदारो के खिलाफ उनके मनमाने बर्ताव और अत्याचारी कानून के खिलाफ था हालांकि यह आंदोलन जिस तीव्र गति से फैला था उसी तीव्र गति से अंग्रेजों ने इसका दमन किया , क्योंकि अगर अंग्रेज इसका दमन ना करते हैं तो अंग्रेजी सत्ता बहुत पहले ही उखड़ गई होती क्योंकि उस समय प्रथम विश्व युद्ध के चलते ब्रिटिश सरकार पर खासा दबाव था वह आंतरिक चल रहे किसी भी विद्रोह जोखिम नहीं मोड़ लेना लेना चाहते थे ,
            इसलिए ब्रिटिश सरकार ने फौज लगाकर इस आंदोलन को बड़ी मजबूती से दबाया ,और ऊपर से उस समय चल रहा गांधी जी का असहयोग आंदोलन एका आंदोलन के आगे फीका पड़ रहा था , तीव्र गति से फैलने वाला " एका" आंदोलन असहयोग आंदोलन से कहीं आगे निकल गया था , तो ऐसा क्या हुआ एका आंदोलन कठोरता से दबाया गया, बल्कि असहयोग आंदोलन समानांतर मंद गति में चलता रहा । एक तरह से कह सकते हैं कि असहयोग आंदोलन " एका आंदोलन " को निकल गया ।

     " मुझे तो साजिश की बू आ रही है "

मदारी पासी का यह क्रांतिकारी आंदोलन मुर्दों में भी जान फूंक देता है एका आंदोलन ना फिर कभी देखा गया और ना ही कभी हुआ ।

         क्रांतिकारी मदारी पासी की को देखते हुए लगता है
क्रांति की कोई उम्र नहीं होती , और जहां अत्याचार है वहां दो चीजें होती हैं या डर मारे घुट-घुट के जीते रहो , या विद्रोह कर क्रांति पैदा कर दो , और क्रांति जब तक सफल नहीं हो सकती ,जब तक कि वह क्रांति जनता के बीच ना जाए और एका आंदोलन जानता कि क्रांति थी

                   - revolutionary -

मदारी पासी वास्तव में एक क्रांतिकारी थे और है और हमारे दिलो में रहेगें ।

( क्रांतिकारी मदारी पासी 1920-1921 )
  जय क्रांतिकारी - जय मदारी

बड़ी मेहनत के साथ खोजबीन करके यह सारा इतिहास आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूं कृपया ज्यादा से ज्यादा इसे शेयर करिए और अपने भाइयों तक ईसको पहुंचाए

( कुंवर प्रताप रावत )
The Pasi Landlords

प्राप्त जानकारी
              1. 1922 की बेहद पुरानी किताब revolution or evolution
             2. इंटरनेट पर उपलब्ध ब्रिटिश अखबार ‘द ग्लासगो हेराल्ड’, मार्च 10, 1922 और ‘द डेली मेल’, मार्च 10, 1922 , की कटिंग फोटो
            3. स्थानीय किदवंती और कहानी में जीवित मदारी पासी का चित्रण ।

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मंगलवार, 28 जुलाई 2020

महात्मा श्री गुरु चरण देव


परशुराम सातन की औलाद हो तुम,सुदेलदेव बिजली के खानदान हो तुम, निकलते थे रण मे लरजति जमी थी, नही आप मे वीरता की कमी थी, गये भूल क्या हो ओ बातें पुरानी, तुम्ही ने तो थी जंग गांजर की ठानी, उठो सोने वालो क्या सोते रहोगे, ओहो लाज अपनी क्या खोते रहोगे, गैरो ने आकर शसन जमाया, मिला कर के लोगो को तुमको मिटाया ||

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महात्मा श्री गुरुचरण देव जी महाराज (1913 -1983) ई.
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नाम - श्री गुरुचरण देव जी
जन्म - 1913 - 1983 ई.
पिता - डालचंद पासी
गुरु - गोविंद जी महराज

माता का बचपन में स्वर्गवास हो गया बालक अवस्था में गुरु चरण देव शुरुआती शिक्षा प्राप्त कर कक्षा 8 (उस समय मिडिल कहते थे , पास थे) । प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त कर श्री गुरु चरण देव बाल ब्रह्मचारी संत हो गया उन्होंने भारत देश का खूब भ्रमण किया ,पासी कुल सपूत शिरोमणि गुरु चरण देव जी के हृदय में पासी जाति के लिए प्रेम अंकुरित हुआ । वेद पुराण और ऐतिहासिक ग्रंथों का अध्ययन कर ज्ञान अर्जित किया साधुवेश धारी होकर पासी जाति की गिरी हुई अवस्था को देखा प्राचीन ऐतिहासिक ग्रंथों को सूक्ष्मता से अध्ययन किया । उनके अथक परिश्रम से पासी जाति का इतिहास खोज निकाला एवं पासी इतिहास को सुदृढ़ किया एवं पासी इतिहास को प्रथम लिपिबद्ध किया जो अभी तक पासी इतिहास में कभी देखा नहीं गया था । जगह-जगह संगठन बनाकर पासी जाति की सभाएं आयोजित कराई । क्रमबद्ध तरीके से पासी इतिहास को दुनिया में पासी जन तक पहुंचाया और उस समय अपने अधिकारों के लिए लड़ना आवाज उठाना एवं नई चेतना पैदा किया जो 1920 - 21 में क्रांतिकारी मदारी पासी के बाद कुछ 10 सालों के लिए धीमा पड़ गया था वह एक बार फिर से तीव्र गति में आ चुका था । बस फर्क इतना था की जननायक मदारी पासी की क्रांति देशव्यापी था और श्री गुरु चरण देव जी की यह क्रांति पासी जाति सुधार एवं देश की सेवा था ।

✓अब आसान भाषा में समझते हैं !

• एक बात आप समझ लीजिए कि क्रांतिकारी मदारी पासी की जब भी बात आती है तो वह सर्व समाज यानी पूरे देश के लिए जाने गए और उनका एका आंदोलन /eka movement 1920-1921 AD गरीब किसानों मजदूरों के शोषण के खिलाफ था ।
• इसलिए पाठक गढ़ भ्रमित ना हो क्योंकि यह एक दूसरे के बिना भी अधूरे हैं और श्री गुरु चरण देव जी मुख्यतः पासी जाति के समाज सुधार के लिए जाने जाते हैं और श्री गुरु चरण देव मदारी पासी से खासा प्रभावित और प्रेरित थे इनका चाल ढाल बिल्कुल मदारी पासी जैसा ही था विद्रोही तेवर स्वतंत्र प्रवृत्ति और कुछ करने कि ललक थी ।

✓ श्री गुरु चरण देव जी का शुरुआती परिचय 1913-1983

 श्री गुरु चरण देव का आजीवन बाल ब्रह्मचारी थी इन्होंने विज्ञान वाद का सिद्धांत अपनाया यह क्रांतिकारी मदारी पासी से खासा प्रभावित थे और क्रांतिकारी मदारी पासी 1920 के दशक में गरीबों में किसानों में एक लहर पैदा कर दी थी, अत्याचार के खिलाफ लड़ने कि वह लड़ाई अधिकारो की थी बराबरी की थी, सालों साल चले आ रहे जमीदारी तालुकदारी प्रथा की आड़ में हो रहे गरीब किसानों के उत्पीड़न की ।
 
 श्री गुरु चरण देव जी का शुरुआती जीवन क्रांतिकारियों के बीच बीता था इसलिए वह गुरु चरण देव के अंदर क्रांतिकारी विचार थे वह अपने युग के समझ चुके थे अपने क्रांतिकारी विचार से पासी समाज में उस समय एक नई चेतना फूंक दी थी, जिससे पासी समाज 1930-1940 के दशक में अपने गौरवशाली अतीत को हासिल करने में लग गया ,लोग शिक्षित होने लगे अपने अधिकारों को जानने लगे , वह दौर विज्ञानवाद था ,लोग विज्ञान के जरिए पाखंड की पोल खोलने लगे पासी समाज में व्याप्त पाखंड को दूर करने के लिए गुरु चरण देव जी एड़ी चोटी जोर लगा दिया ,वह खुद स्वतंत्र विचार के थे लोगों को स्वतंत्र विचार रहने के उपदेश देते थे ।
" ताकि जो गुलामी मात्र एहसान तले दबकर जमीदारों से जुल्म सहते थे वह भावना भी इनमें दूर रहे "
श्री महात्मा गुरु चरण देव जी योगी से दूरदर्शी थे आधुनिक सोच वाले थे क्रांतिकारी विचार से ओतप्रोत थे ,उनका भेष महात्मा का था लेकिन पूर्णता विज्ञान वादी सिद्धांत के मानने वाले थे पाखंड उनको बिल्कुल भी पसंद नहीं था क्योंकि वह दौर आधुनिक विज्ञानवाद का था वह दौर भगत सिंह और मदारी पासी का था ।

✓ श्री गुरु चरण देव कि वेशभूषा एवं सोच

श्री गुरु चरण देव लंबे कद के 6 फुट से कुछ ज्यादा लंबे थे बाल ब्रह्मचारी एवं जनेऊधारी थे, गहरे सांवला रंग चेहरे पर तेज ,उनके पहनावे में खासतौर से अंतर दिखा वह सफेद कपड़ा पहनते थे ( जैसे मदारी पासी ) और वह अन्य साधुओं की तरह मात्र कपड़े का फेंटा नहीं लपेटते थे, वह दोहरे लॉन्ग की धोती पहनते थे , ताकि अचानक किसी भी आकस्मिक प्रतिक्रिया का जवाब देते उनका पहनावा बाधक ना आये । वह धनुष तीर और फरसा अपने साथ रखते थे उनका भेष बिल्कुल परशुराम जैसा था

श्री गुरु चरण देव शिव को मानने वाले शिव जैसा सादा जीवन व्यतीत करने वाले कल्याण का मार्ग अपनाने वाले , परोपकार के रास्ते पर चलने वाले क्रांतिकारी विचार के थे , वह पारंपरिक रूढ़िवादिता के भी खिलाफ थे वह आधुनिकता को अपनाने पर जोर देते , समय की मांग के हिसाब से खुद को ढालना ,देश प्रेम और समाज के हित में काम करने पर जोर देते हैं उनके कुश्ती के अखाड़े थे , पहलवानी करते करवाते थे ,क्योंकि वह समय ब्रिटिश शासन था और किसी को नहीं पता था कि देश कब आजाद होगा इसलिए

    " उन्होंने देश की और जाति की सेवा करने के लिए पासी वीर दल कायम किया "

वह अपने शिष्यों के नाम के आगे दास नहीं लगाने देते थे कहते थे कि दास गुलामी का प्रतीक होता है नाम के आगे देव लगाओ कहते थे- की हम राजपासी हैं हमने इस देश पर शासन किया है गुरुचरण देव क्रांतिकारी विचार के थे वह समाज के हित में कब ? कौन? सा फैसला ले लेते यह उन पर निर्भर करता था

✓ श्री गुरु चरण देव जी के कार्य एवं उपलब्धियां

श्री गुरु चरण देव वेद और पुराणों के अच्छे जानकार थे दूरदर्शी भी ,उन्होंने अपने ज्ञान से कई बड़े-बड़े ब्राह्मण महात्माओं को साक्षात्कार में परास्त किया जिससे कि उनके निकट के ब्राह्मण उनसे जलने लगे खासतौर से नैमिषारण्य और नैमिषारण्य के पांडव पुजारी से श्री गुरु चरण और उनके मंडली से झड़प भी हुई थी , क्योंकि यह पाखंड विरोधी थे तो समाज में एक नई विचारधारा पैदा कर दी और धीरे-धीरे श्री गुरु चरण देव की लोकप्रियता समाज में फैलती चली गई जैसे कि मदारी पासी की फैली थी ।
                             उन्होंने वेदों और पुराणों एवं अन्य ऐतिहासिक ग्रंथों की सूक्ष्मता से अध्ययन कर उन्होंने पासी इतिहास को उजागर किया उन्होंने वर्षों वर्षों से चली आई पासी जाति में जो धारणा थी कि " परशुराम ने कुश घास से पांच तलवारे बनाई उसको संचालित करने के लिए पासी बनाया जो परशुराम के पसीने से अवतरित थे" उसका खंडन किया और बताया यहां मात्र ब्राह्मणों के वर्चस्व में बने रहने की कोरी कल्पित कहानी मात्र है जिसका उद्देश्य पासी जाति में हीन भावना पैदा करना मात्र था , उन्होंने इसका खंडन करते हुए कहा पसीने से अव्यवस्थित उत्पत्ति तो हो ही नहीं सकती हां उनके वंशज जरूर हो सकते है । उन्होंने 1930 के दशक में पासी जाति के ऊद्भ्व को सुदृढ़ किया ।

श्री गुरु चरण देव के मतानुसार - " कि परशुराम भृगु के वंश में आते हैं और भृगु धार्मिक ग्रंथो के अनुसार वरुण के लड़के कहे जाते हैं और वरुण को " पाशधर" बोला गया है "पाशी " बोला गया है और धार्मिक ग्रंथों के अनुसार वरुण को असुर बोला गया है , वही पासी नाग असुर की जाती कही जाती है और ऊपर से पासी लोग प्राचीन समय से भृगु और परशुराम को अपने कुल का मानते आए हैं "
                                     इसलिए गुरु चरण देव को समझने में देर नहीं लगी और भृगु को पासी माना और भृगु वंश समाज कि स्थापना की । क्योंकि वह पाखंडवाद और अंधविश्वास का मुकाबला उचित ज्ञान से करने वाले थे और पाखंड और अंधविश्वास में डूबे हुए पासी समाज को बाहर निकालने की कोशिश की और भृगु वंश की स्थापना मात्र पासी जाति में श्रेष्ठता , उच्चता , स्वछता ,की ओर अग्रसर करवाना था क्योंकि भृगु सबसे श्रेष्ठ माने जाते थे । वह ऋषि भृगु से प्रेरणा लेते थे श्री गुरु चरण देव परशुराम को आदिवासी ही मानते थे ।
   
         " महत्वपूर्ण घटना जो 1935 में घटी "

नोट - 1951 प्रकाशित किताब "पासी छंद शरोदय " में उल्लेखित घटना
"5 ,जनवरी 1935 में दोनावा में सभा हुई उसमें बहुत से महात्मा शामिल हुए जैसे क्षेदम्भू दास साहब और श्याम दास जी साहब बहुत से महात्मा शामिल हुए थे उसमें पासी भाइयों को जनेऊ पहिरआया तो कई अज्ञानी ब्राह्मण जलने लगे उन्होंने कहा- कि जनेऊ ब्राह्मण का है ? पासी कैसे पहनेंगे ? भाइयों की जनेऊ तोड़े और दंगा किया इस पर बड़ा हाहाकार मचा हर तरफ अब सनसनी फैल गई सब कहने लगे कि यह पासी परशुराम के पुत्र भृगुवंशी बन गए हैं ? यह कैसे होगा ? इसलिए इस मामले का फैसला पंडित बंशीधर M.L.A ने किया जिसका कुल हाल खीरी जिले की रिपोर्ट में लिखा है "

क्योंकि उससमय सभी जातियों में समाज सुधार आंदोलन चलाया जा रहा था सभी सभी जातियां ऊपर उठने का प्रयास कर रही थी सभी जातियों में जनेऊ पहनाया जाने लगा जैसे चमार, भंगी ,कुर्मी ,अहिर ,पासी कुम्हार , मुराई, आदि और इन्हीं सभी जातियों का विरोध ब्राह्मण -ठाकुरों ने कड़ा विरोध किया ,क्योंकि उनको कहीं ना कहीं ऐसा लग रहा था कि यह सारी जातियां उनसे ऊपर उठ रही थी , जो उनको हज़म नहीं हो रही थी । अतः यह सारी जातियां समाज सुधार आंदोलन में जनेऊ पहना कर उच्च दर्जा प्राप्त कर रहे थे भला उच्च दर्जा कौन नहीं प्राप्त करना चाहता था !

तो उस समय समाज सुधार आंदोलन की प्रेरणा से भी श्री महात्मा गुरुचरण देव जी ने जनेऊ आंदोलन को अपनाया और पासी जन को जनेऊ पहनाने शुरू किया और उच्चता स्वच्छता और शिक्षा की ओर जोर दिया यहां तक कि शाकाहारी रहने पर बल दिया और मांसाहार को बहिष्कार किया यहां तक कि किसी भी पासी के मांस भक्षण करते हुए पाए जाने पर उस पर जुर्माना भी लगाते थे इतने क्रांतिकारी विचार और बागी तेवर से पासी समाज में जबरदस्त उछाल आया सीतापुर हरदोई लखीमपुर खेरी, रायबरेली, बाराबंकी ,लखनऊ ,बहराइच इलाहाबाद ,आदि में इस भृगु वंश मत का तेजी से फैलाव हुआ क्योंकि हरदोई इसका गढ़ था तो इसका प्रभाव हरदोई में खासा दिखाई पड़ा इसीलिए हरदोई क्षेत्र में शिक्षा का स्तर अन्य जिलों के मुकाबले ज्यादा है और 99% पासी हरदोई के शाकाहारी ही मिलेंगे इसके बाद इलाहाबाद का नंबर आता है

✓ पासी समाज सुधार एवं संघर्ष और 1930-1940-1950

हालांकि आगे चलकर जनेऊ आंदोलन पासी समाज के टूटने का कारण भी बना क्योंकि यह देखा गया कि पासी की उपजातियां आपस में ही भेदभाव करने लगी थी या यूं कहिए कि सत्ताधारीओ की बहुत बड़ी चाल भी थी गुरु चरण देव क्रांतिकारी विचार के थे ,वह समाज के हित में कब ? क्या ? फैसला ले उन्होंने जनेऊ आंदोलन का समर्थन किया , 1949 में में बहुत बड़ी सभा पासियों की कराई उसमें लखनऊ के आसपास के जिलों से भी पासी इकट्ठा हुए और उस सभा में बड़े उपदेश दिए गए और जनेऊ को उतार के फेंक दिया गया

पासियों के जनेऊ पहनने से ब्राह्मण ठाकुर में बड़ा रोष हो गया था कई जगहों पर पासी और ब्राह्मणों में वर्चस्व को लेकर झगड़ा शुरू हो गए थे दो ,तीन की मौत हो गई थी नैमिषारण्य में पांडा - पुजारियों से और पासी संतो के झगड़े हुए , सातन कोट के पास ठाकुर और पासीयों के झगड़े हो गए, फिर बाद में ब्रिटिश सरकार के दखल के बाद मामला शांत कराया गया

✓ जय भृगुवंश - पासी वीर दल 1940

फिर वजूद में आया " पासी वीर दल " श्री गुरु चरण देव ने एक अपना विंग की स्थापना की इन सभी चीजों में सबसे बड़ी चीज ध्यान देने योग्य है वह है श्री गुरु चरण देव जी के कार्य करने के तरीके जो काफी व्यवस्थित और सटीक रहते थे
" पासी वीर दल " की स्थापना पासी समाज सुधार और जाति एवं देश की सुरक्षा हेतु किया गया
     और इसका reclamation department द्वारा संपूर्ण भारत के चित्र सहित पीतल का तमगा पास कराया और गवर्नर से मान्यता प्राप्त की गई
आज भी इस पीतल के तमगे को देखने से पता चलता है भारत का नक्शा है जिसमें धनुष -तीर ,फरसा ,तलवार बना हुआ है

पासी वीर दल में शामिल होने वाले हर एक व्यक्ति के पास यह पीतल का तमगा एवं धनुष ,तीर ,फरसा तलवार रखने की इजाजत थी , इनकी वर्दी होती थी जो नीचे सफेद धोती और ऊपर खाकी रंग की खड़े कॉलर में कोट जैसा लिवास होता था , जो बटनदार ना होकर डोरी दार थे ।
                    ऐसे थे हमारे श्री गुरु चरण देव जी, जो महात्मा थे, अध्यात्म को समझा , जो क्रांतिकारी विचार वाले रहे , यहां तक कि उन्होंने अपने आप को नागवंश से माना और नाग सभ्यता से अपने आप को जोड़ा और सबसे बड़ी बात उस समय 1935 के करीब में उन्होंने अपना एक कमरा नीचे जमीन के नीचे बनवाया कहते थे कि हम नागवंश से हैं यह हमारी सभ्यता है और लखनऊ नागों का बसाया हुआ है जहां कि सुरंगे दूर दूर तक जाती हैं और कितनी तार्किक और ऐतिहासिक बात यह भी है लखनऊ में सुरंग भी पासी जाति ही खोद्दती थी और पासी सुरंग खोदने में बदनाम थे क्योंकि इनकी खोदी गई सुरंग में बिल्कुल सटीक जगहों पर खुलती थी , यह सारी चीजें परंपरागत थी और यही मजबूत विश्वास था श्री गुरु चरण देव जी का कि पासी वह नाग सभ्यता से जुड़े है
और लखनऊ महाराजा लाखन पासी के नाम से बसाया हुआ भी था उन्होंने इतिहास में शोध किया और आल्हा अंक लिखे

✓ Achievements/ उपलब्धियां

• श्री महात्मा गुरुचरण देव जी द्वारा 1940 के दशक में पासी समाज पर पहली बात प्रिंट हुआ यानी कि किताब छपाई और बटवाई
• पासी वीर दल की स्थापना
• भृगु वंश समाज कि स्थापना
• पासी जाति समाज सुधार आंदोलन
• क्रिमिनल ट्राइब से हटाने के लिए भारत सरकार से मांग
• पासी पंचायत प्रणाली को और सुदृढ़ किया आदि ।
• जय सत्य भृगु वंशी समाज पासी वीर महा सभा( किताब)

उस समय के किताबों में मिले श्री गुरु चरण देव के समय के साथी जो निम्न प्रकार से हैं
कालिका प्रसाद तपसी, श्री रग्बा, श्री बलदेव प्रसाद, श्री बहादुर जाजनई वाले , श्री दुनई प्रसाद, श्री मितान ,मा• लोचन लाल तपसी, महात्मा हनुमान लाल लखीमपुर वाले, श्री शिवनाथ ,श्री लखू भक्त, श्री राम भरोसे विकल, श्री मसूरियादीन इलाहाबाद वाले , और अयोध्या प्रसाद अभिलाषी आदि ।
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ऊपर दिए गए सारी जानकारी 1948 और 1951 में लिखी एक किताब श्री गुरु चरण देव जी के बारे में और उनके द्वारा किए गए कार्यों के बारे में जो पासी वीर महासभा में दिया गया है उससे संदर्भित है उपयुक्त तो लेख में श्री गुरु चरण देव जी का सिद्धांत एवं उनके कार्य शैली को उजागर करना मात्र ,आज के पासी समाज के युवाओं को उनसे प्रेरणा लेना चाहिए ।

संग्रह करता एवं शोधकर्ता
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कुंवर प्रताप रावत
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सोमवार, 27 जुलाई 2020

Raja Lakhan Pasi राजा लाखन पासी

लखनऊ शहर को बसाने वाले निर्माता महाराजा लाखन पासी
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महाराजा लाखन पासी ( 10-11) ई.
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#लाखन_पासी किले का #इतिहास जानकारों की माने और इतिहास पर नजर डालें तो कहीं न कहीं सामने आया प्राचीन समय का निर्माण किसी किले के जमीन के नीचे दबे होने के संकेत दे रहा है ।  प्राचीन इतिहस में #महाराजा लाखन पासी के इतिहास के बारे में दी गई जानकारियों के मुताबिक लखनऊ गजेटियर ( ब्रिटिश काल ) में भी लिखा है कि जिले के प्राचीन स्थानों की संख्या बहुत थोड़ी है । अधिकतर टीले या डिह जो विद्यमान है. पासियों के बताए जाते है।यह सब इस बात के स्पष्ट प्रमाण है कि लखनऊ और उसके आस पास के समस्त जिलो पर पासियों का राज था  और लखनऊ को राजा लाखन पासी ने बसाया था महाराजा लाखन पासी के समय लखनऊ एक छोटा नगर था । आज जहा लखनऊ मेडिकल कालेज एवं टीले वाली मस्जिद है वह स्थान महाराजा लाखन पासी का #किला और उससे संबद्ध में  भवन हुआ करते थे । कालान्तर में उन पर #राजपूतों और #मुसलमानों के हमले होते रहे और संरक्षण के अभाव में ये ऐतिहासिक धरोहर नष्ट होती गई । इतिहासकार योगेश प्रवीन ने अपनी #पुस्तक_दास्ताने अवध में राजा लाखन पासी का उल्लेख किया है । कई विद्वानों ने अपनी पुस्तक में स्पष्ट लिखा है कि लखनऊ की लाखन पासी ने बसाया था

राजा लाखन पासी के साक्ष्य✓
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देखिए जब से इतिहास की जानकारी होती है तभी हम कुछ कह सकते हैं बिना साक्ष्यों और  बिना प्रमाण के कोई बात करना उचित नहीं होता  और इसलिए किसी भी स्टोरी के पीछे हम तहकीकात करते हैं तब किसी न किसी साक्ष्यों पर या किसी ने किसी किदवंती और पौराणिकता को छूते हैं  और साथ में उससे जुड़े हुए ऐतिहासिक तथ्यों का आकलन भी करते हैं जिससे हम ऐतिहासिक तथ्यों पर विश्वास करते हैं और यह सही भी है लेकिन जब साथ में कुछ पौराणिक घटनाओं का जिक्र होता है तो उसको भी ध्यान में रखा जाता है और इसी प्रकार से जब लखनऊ शहर की बात करते हैं इस शहर का नाम लखनऊ कब पड़ा ?  कैसे पड़ा ?  इसके पीछे क्या साक्ष्य हैं?  तो हम पाते हैं लखनऊ शहर के बारे में प प्रायः दो मत का प्रचार है -

1. सामान्य विश्वास के अनुसार इस शहर का नाम यहां के राजा लाखन पासी ( लखना) के नाम से पड़ा जो किसी समय यहां बड़े शक्तिशाली थे  ऐसा इसलिए कहा जाता है कि आसपास के संपूर्ण क्षेत्र पर पासियों का राज रहा है जिनके किलो के अवशेष आज भी विद्यमान हैं.

2. साथ ही  विश्वास के अनुसार यह कहा जाता है कि पौराणिकता के अनुसार राम के भाई लक्ष्मण के नाम से इस शहर का नाम लक्ष्मणपुर से लखनपुर पड़ा और लखनपुर से नवाबों के समय लखनौ और फिर अंग्रेजों के समय लखनऊ हो गया ।


   
जब हम राजा लाखन पासी की बात करते हैं तब उनसे जुड़े उनके किलो और उनके द्वारा निर्मित भवनों  अवशेष लखनऊ में देखने को मिल जाते हैं जिन का अध्ययन करने से पता चलता है यह लगभग हज़ार साल पहले
का है -
अब जब हजार साल पुराने साक्ष्यों का अध्ययन करते हैं तब यहां इस  क्षेत्र पर लखनऊ सहित आसपास के 14 जिलों में पासियों का एकछत्र राज रहा जिसका समय काल 9. वी सदी 12 वी सदी. तक देखा गया बाद में  निरंतर  हुवे मुस्लिम और राजपूतों के आक्रमण से उनके राज्य छिन्न-भिन्न हो गए ।

मुस्लिम आक्रमण
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भारत में मुस्लिमो का आक्रमण 8 वी. शताब्दी के आते-आते प्रारंभ हुआ ( 712 ई.) है उसी क्रम में जब हम ( 10-11) वीं सदी की बात करते हैं तभी इस क्षेत्र पर सैयद सालार मसूद गाजी का आक्रमण होता है जिसके पास में लाखों की तादाद में सैन्य बल और सेना होती है पंजाब दिल्ली कन्नौज को जीतता हुआ क्षेत्र अवध पर पहुंचा , कन्नौज के राजाओं ने मुसलमानों की अधीनता स्वीकार कर ली थी।
                                और वह इस क्षेत्र को जीतने के लिए आगे बढ़ा  और #लखनऊ की धरती पर कदम रखते ही उसकी बिकट लड़ाई कसमंडी ( काकोरी ) के  शक्तिशाली रजपासी राजा कंस से लड़नी पड़ी । प्रथम युद्ध में गाजी की सेनाओं को हार का मुंह देखना पड़ा तब यह क्षेत्र पासियों से भरा हुआ था #मुसलमानों को इस बात का अंदाजा नहीं था कि यहां के पासी  इस हद तक #युद्ध करेंगे कि उसकी मौत का कारण  बन जाएंगे अपने जीत के नशे में चूर सैयद सालार मसूद गाजी बहुत जल्द हार का स्वाद चखना पड़ा ,और सारी सेना सहित वह बहराइच में पासी  राजा #सुहेल_देव के हाथों मारा गया ।

#लखनऊ में पासियो का  संघर्ष
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#इतिहासकारों का मानना है कि #कंसमंडी के विकट लड़ाई के बाद मसूद गाजी को अगली बिकट  लड़ाई लाखन कोट पर लड़नी पड़ी ।
               क्योंकि कंसमंडी के दौरान राजपासी  कंस वीरगति हुवे, लेकिन उससे पहले  सैयद सलार गाजी के दो भतीजे सैयद हातिम और खतीम को मौत के घाट उतार दिए थे  जिसकी मजारे आज भी कसमंडी में देखने को मिल जाती हैं
और #लखनऊ_अकबरी_गेट के सामने उस समय मैदान था जहां पर #भीषण_युद्ध हुआ था और उसके बाद लाखन कोट पर यह युद्ध इतना भयंकर हुआ । अपने भतीजे के मौत से बौखलाए सैयद सालार मसूद गाजी ने अपनी लाखों की सेना इस कोट को जीतने के लिए लगा दी  आज भी उस युद्ध की गवाही देता पास में गंजशहीदा आज भी मौजूद है जहां मुसलमानों की लाशे है आज भी दफन है, और इतिहासकारों का मानना है कि लखनऊ की बिकट लड़ाई में ही राजा लाखन पासी वीरगति हुए  ।
 और फिर मसूद गाजी ने यहां से गोमती पार करके बाराबंकी में सतरिख में अपना पड़ाव डाला था और फिर युद्ध की सारी नीतियां वहीं से बनाई लेकिन लखनऊ के बिकट  युद्धों से मसूद गाजी इतना घायल हुआ कि उसकी सेनाओं को उबरने में बड़ा समय लगा,  फिर आगे बहराइच में पासी राजा सुहेलदेव के हाथो मारा गया ।

तो यह कहानी है महाराजा लाखन पासी की और उनके द्वारा किए गए युद्धों की जो आज भी किस्सों कहानियों में लखनऊ में सुनने को मिल जाती है  ।

अब बात करते है ऐतिहासिक साक्ष्यों की
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ऐसी बहुत सारी किताबें हैं लेकिन एक ऐसी किताब है जिसमें बकायदा राजा लाखन पासी के बारे में बताया गया है जिसके नीचे में पन्ने को अपलोड कर रहा हूं जिसे आप देख लीजिएगा

जी हां मैं बात कर रहा हूं  ( The beautiful india  uttar Pradesh -1978 ) जो  Central archaeological library में मिल जाएगी जिस पर उसकी मोहर भी है  जिसके पेज नंबर 175 पर जाने से लखनऊ के बारे में आपको जानकारी दी गई है वह निम्नवत है -

( Lucknow ) -   लखनऊ: लखनऊ (लखनाऊ), बगीचों का शहर, गोमती के किनारे स्थित है।  लखनऊ नाम की उत्पत्ति पर विवाद है।  " मुस्लिम इतिहासकारों का मत है कि बिजनौर शेख करीबन 1526 ई. में यहां आकर बस गए थे और उस समय के इंजीनियर लखना पासी की देखरेख में अपने लिए एक किला (किला) बनवाया था।  प्रारंभ में किला लखना के रूप में नामित यह धीरे-धीरे लखनऊ में बदल गया।  दूसरी ओर,  हिंदू साहित्य एक अलग संस्करण देता है।  ऐसा कहा जाता है कि भगवान राम के सौतेले भाई, लक्ष्मण, जिन्हें लखन के नाम से जाना जाता है, का जन्म यहीं हुआ था और लखनपुर शहर की स्थापना यहां पर हुई थी।  यह बाद वाले मत से ऐसा  प्रतीत होता है क्योंकि इस समय तक इंजीनियर के नाम पर किसी शहर का नामकरण नहीं किया गया है, हालांकि शहर और कस्बों का नाम राजकुमारों और शासकों के नाम पर जरूर रखा गया है।"

नोट -  विद्वानो ने इंजीनियर की बात को खारिज कर राजकुमारो एवं शाशको के नाम से हो सकता है स्वीकारा गया है

मुस्लिम इतिहासकार यह अच्छी तरीके से जानते थे कि लाखन पासी नाम का कोई शासक था ।
                      दूसरी बात यह कि पासी शासकों ने कई जगह सुंदर-सुंदर निर्माण करवाएं जिनका उदाहरण आज भी आप देख सकते है और ब्रिटिश गजेटियर से प्रमाणित भी है किलो के संदर्भ में ,जैसे महाराजा बिजली पासी के 12 किले लखनऊ में देखने को मिल जाते हैं जिनके , उचित देखे रेख ना होने से खंडहरों के रूप में बचे हैं

इंजीनियर कहने का तात्पर्य - उनका नए नए भवनों का निर्माण की  चाहत रखने वाला ( राजा)  से हो सकता है  जो ऐतिहासिक रूप से सत्य प्रतीत होता है क्योंकि यहां पर पासियो का राज था और उनके ढेरों प्राचीन किले एवं डीह देखने को मिल जाते हैं


तो जो सदियों सदियों से लखनऊ के बारे में जो मत है वह भी आपके समाने रखा है

 महाराजा  लाखन पासी के नाम से , जिनके बहुत से ऐतिहासिक प्रमाण हैं जैसे  ;-

(i ) संस्कृति विश्वकोष vol.1 by सूर्यप्रसाद दीक्षित
(ii) प्रख्यात इतिहासकार श्री योगेश प्रवीन
(iii) प्रख्यात इतिहासकार अमृतलाल नागर जी
(i v) सेंसस ऑफ इंडिया सीरीज 1971
(V) The beautiful india uttar Pradesh ,page no. 175

आदि बहुत से साक्ष्य हैं महाराजा लाखन पासी के बारे में

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रविवार, 26 जुलाई 2020

चक्रवर्ती सम्राट राजा सुहेल देव पासी 

चक्रवर्ती सम्राट राजा सुहेल देव पासी 

चक्रवर्ती सम्राट राजा सुहेल देव पासी  ऐतिहासिक सूत्रों के अनुसार श्रावस्ती नरेश राजा प्रसेनजित ने बहराइच राज्य की स्थापना की थी जिसका प्रारंभिक नाम भरवाइच था। इसी कारण इन्हे बहराइच नरेश के नाम से भी संबोधित किया जाता था। इन्हीं महाराजा प्रसेनजित को माघ मांह की बसंत पंचमी के दिन 990 ई. को एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई जिसका नाम सुहेलदेव रखा गया। अवध गजेटीयर के अनुसार इनका शासन काल 1027 ई. से 1077 तक स्वीकार किया गया है। वे जाति के पासी थे, महाराजा सुहेलदेव का साम्राज्य पूर्व में गोरखपुर तथा पश्चिम में सीतापुर तक फैला हुआ था। गोंडा बहराइच, लखनऊ, बाराबंकी, उन्नाव व लखीमपुर इस राज्य की सीमा के अंतर्गत समाहित थे। इन सभी जिलों में राजा सुहेल देव के सहयोगी पासी राजा राज्य करते थे जिनकी संख्या 21 थी। ये थे -1. रायसायब 2. रायरायब 3. अर्जुन 4. भग्गन 5. गंग 6. मकरन 7. शंकर 8. करन 9. बीरबल 10. जयपाल 11. श्रीपाल 12. हरपाल 13. हरकरन 14. हरखू 15. नरहर 16. भल्लर 17. जुधारी 18. नारायण 19. भल्ला 20. नरसिंह तथा 21. कल्याण ये सभी वीर राजा महाराजा सुहेल देव के आदेश पर धर्म एवं राष्ट्ररक्षा हेतु सदैव आत्मबलिदान देने के लिए तत्पर रहते थे। इनके अतिरिक्त राजा सुहेल देव के दो भाई बहरदेव व मल्लदेव भी थे जो अपने भाई के ही समान वीर थे। तथा पिता की भांति उनका सम्मान करते थे। महमूद गजनवी की मृत्य के पश्चात् पिता सैयद सालार साहू गाजी के साथ एक बड़ी जेहादी सेना लेकर सैयद सालार मसूद गाजी भारत की ओर बढ़ा। उसने दिल्ली पर आक्रमण किया। एक माह तक चले इस युद्व ने सालार मसूद के मनोबल को तोड़कर रख दिया वह हारने ही वाला था कि गजनी से बख्तियार साहू, सालार सैफुद्ीन, अमीर सैयद एजाजुद्वीन, मलिक दौलत मिया, रजव सालार और अमीर सैयद नसरूल्लाह आदि एक बड़ी धुड़सवार सेना के साथ मसूद की सहायता को आ गए। पुनः भयंकर युद्व प्रारंभ हो गया जिसमें दोनों ही पक्षों के अनेक योद्धा हताहत हुए। इस लड़ाई के दौरान राय महीपाल व राय हरगोपाल ने अपने धोड़े दौड़ाकर मसूद पर गदे से प्रहार किया जिससे उसकी आंख पर गंभीर चोट आई तथा उसके दो दाँत टूट गए। हालांकि ये दोनों ही वीर इस युद्ध में लड़ते हुए शहीद हो गए लेकिन उनकी वीरता व असीम साहस अद्वितीय थी। मेरठ का राजा हरिदत्त मुसलमान हो गया तथा उसने मसूद से संधि कर ली यही स्थिति बुलंदशहर व बदायूं के शासकों की भी हुई। कन्नौज का शासक भी मसूद का साथी बन गया। अतः सालार मसूद ने कन्नौज को अपना केंद्र बनाकर हिंदुओं के तीर्थ स्थलों को नष्ट करने हेतु अपनी सेनाएं भेजना प्रारंभ किया। इसी क्रम में मलिक फैसल को वाराणसी भेजा गया तथा स्वयं सालार मसूद सप्तॠषि (सतरिख) की ओर बढ़ा। मिरआते मसूदी के विवरण के अनुसार सतरिख (बाराबंकी) हिंदुओं का एक बहुत बड़ा तीर्थ स्थल था। एक किवदंती के अनुसार इस स्थान पर भगवान राम व लक्ष्मण ने शिक्षा प्राप्त की थी। यह सात ॠषियों का स्थान था, इसीलिए इस स्थान का सप्तऋर्षि पड़ा था, जो धीरे-धीरे सतरिख हो गया। सालार मसूद विलग्राम, मल्लावा, हरदोई, संडीला, मलिहाबाद, अमेठी व लखनऊ होते हुए सतरिख पहुंचा। उसने अपने गुरू सैयद इब्राहीम बारा हजारी को धुंधगढ़ भेजा क्योंकि धुंधगढ क़े किले में उसके मित्र दोस्त मोहम्मद सरदार को राजा रायदीन दयाल व अजय पाल ने घेर रखा था। इब्राहिम बाराहजारी जिधर से गुजरते गैर मुसलमानों का बचना मुस्किल था। बचता वही था जो इस्लाम स्वीकार कर लेता था। आइनये मसूदी के अनुसार – निशान सतरिख से लहराता हुआ बाराहजारी का। चला है धुंधगढ़ को काकिला बाराहजारी का मिला जो राह में मुनकिर उसे दे उसे दोजख में पहुचाया। बचा वह जिसने कलमा पढ़ लिया बारा हजारी का। इस लड़ाई में राजा दीनदयाल व तेजसिंह बड़ी ही बीरता से लड़े लेकिन वीरगति को प्राप्त हुए। परंतु दीनदयाल के भाई राय करनपाल के हाथों इब्राहीम बाराहजारी मारा गया। कडे क़े राजा देव नारायन पासी और मानिकपुर के राजा भोजपात्र पासी ने एक नाई को सैयद सालार मसूद के पास भेजा कि वह विष से बुझी नहन्नी से उसके नाखून काटे, ताकि सैयद सालार मसूद की इहलीला समाप्त हो जायें लेकिन इलाज से वह बच गया। इस सदमें से उसकी माँ खुतुर मुअल्ला चल बसी। इस प्रयास के असफल होने के बाद कडे मानिकपुर के राजाओं ने बहराइच के राजाओं को संदेश भेजा कि हम अपनी ओर से इस्लामी सेना पर आक्रमण करें और तुम अपनी ओर से। इस प्रकार हम इस्लामी सेना का सफाया कर देगें। परंतु संदेशवाहक सैयद सालार के गुप्तचरों द्वारा बंदी बना लिए गए। इन संदेशवाहकों में दो ब्राह्मण और एक नाई थे। ब्राह्मणों को तो छोड़ दिया गया लेकिन नाई को फांसी दे दी गई इस भेद के खुल जाने पर मसूद के पिता सालार साहु ने एक बडी सेना के साथ कड़े मानिकपुर पर धावा बोल दिया। दोनों राजा देवनारायण व भोजपत्र बडी वीरता से लड़ें लेकिन परास्त हुए। इन राजाओं को बंदी बनाकर सतरिख भेज दिया गया। वहॉ से सैयद सालार मसूद के आदेश पर इन राजाओं को सालार सैफुद्दीन के पास बहराइच भेज दिया गया। जब बहराइज के राजाओं को इस बात का पता चला तो उन लोगो ने सैफुद्दीन को धेर लिया। इस पर सालार मसूद उसकी सहायता हेतु बहराइच की ओर आगें बढे। इसी बीच अनके पिता सालार साहू का निधन हो गया।
बहराइच के पासी राजा भगवान सूर्य के उपासक थे। बहराइच में सूर्यकुंड पर स्थित भगवान सूर्य के मूर्ति की वे पूजा करते थे। उस स्थान पर प्रत्येक वर्ष ज्येष्ठ मास मे प्रथम रविवार को, जो बृहस्पतिवार के बाद पड़ता था एक बड़ा मेला लगता था यह मेला सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण तथा प्रत्येक रविवार को भी लगता था। वहां यह परंपरा काफी प्राचीन थी। बालार्क ऋषि व भगवान सूर्य के प्रताप से इस कुंड मे स्नान करने वाले कुष्ठ रोग से मुक्त हो जाया करते थे। बहराइच को पहले भरराइच के नाम से जाना जाता था। सालार मसूद के बहराइच आने के समाचार पाते ही बहराइच के राजा गण – राजा रायब, राजा सायब, अर्जुन भीखन गंग, शंकर, करन, बीरबर, जयपाल, श्रीपाल, हरपाल, हरख्, जोधारी व नरसिंह महाराजा सुहेलदेव के नेतृत्व में लामबंद हो गये। ये राजा गण बहराइच शहर के उत्तर की ओर लगभग आठ मील की दूरी पर भकला नदी के किनारे अपनी सेना सहित उपस्थित हुए। अभी ये युद्व की तैयारी कर ही रहे थे कि सालार मसूद ने उन पर रात्रि आक्रमण (शबखून) कर दिया। मगरिब की नमाज के बाद अपनी विशाल सेना के साथ वह भकला नदी की ओर बढ़ा और उसने सोती हुई हिंदु सेना पर आक्रमण कर दिया। इस अप्रत्याशित आक्रमण में दोनों ओर के अनेक सैनिक मारे गए लेकिन बहराइच की इस पहली लड़ाई मे सालार मसूद बिजयी रहा। पहली लड़ार्ऌ मे परास्त होने के पश्चात पुनः अगली लडार्ऌ हेतु हिंदू सेना संगठित होने लगी उन्होने रात्रि आक्रमण की संभावना पर ध्यान नही दिया। उन्होने राजा सुहेलदेव के परामर्श पर आक्रमण के मार्ग में हजारो विषबुझी कीले अवश्य धरती में छिपा कर गाड़ दी। ऐसा रातों रात किया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि जब मसूद की धुडसवार सेना ने पुनः रात्रि आक्रमण किया तो वे इनकी चपेट मे आ गए। हालाकि हिंदू सेना इस युद्व मे भी परास्त हो गई लेकिन इस्लामी सेना के एक तिहायी सैनिक इस युक्ति प्रधान युद्व मे मारे गए। भारतीय इतिहास मे इस प्रकार युक्तिपूर्वक लड़ी गई यह एक अनूठी लड़ाई थी। दो बार धोखे का शिकार होने के बाद हिंदू सेना सचेत हो गई तथा महाराजा सुहेलदेव के नेतृत्व में निर्णायक लड़ार्ऌ हेतु तैयार हो गई। कहते है इस युद्ध में प्रत्येक हिंदू परिवार से युवा हिंदू इस लड़ार्ऌ मे सम्मिलित हुए। महाराजा सुहेलदेव के शामिल होने से हिंदूओं का मनोबल बढ़ा हुआ था। लड़ाई का क्षेत्र चिंतौरा झील से हठीला और अनारकली झील तक फैला हुआ था। जुन, 1034 ई. को हुई इस लड़ाई में सालार मसूद ने दाहिने पार्श्व (मैमना) की कमान मीरनसरूल्ला को तथा बाये पार्श्व (मैसरा) की कमान सालार रज्जब को सौपा तथा स्वयं केंद्र (कल्ब) की कमान संभाली तथा भारतीय सेना पर आक्रमण करने का आदेश दिया। इससे पहले इस्लामी सेना के सामने हजारो गायों व बैलो को छोड़ा गया ताकि हिंदू सेना प्रभावी आक्रमण न कर सके लेकिन महाराजा सुहेलदेव की सेना पर इसका कोई भी प्रभाव न पड़ा। वे भूखे सिंहों की भाति इस्लामी सेना पर टूट पडे मीर नसरूल्लाह बहराइच के उत्तर बारह मील की दूरी पर स्थित ग्राम दिकोली के पास मारे गए। सैयर सालार मसूद के भांजे सालार मिया रज्जब बहराइच के पूर्व तीन कि. मी. की दूरी पर स्थित ग्राम शाहपुर जोत यूसुफ के पास मार दिये गए। इनकी मृत्य 8 जून, 1034 ई 0 को हुई। अब भारतीय सेना ने राजा करण के नेतृत्व में इस्लामी सेना के केंद्र पर आक्रमण किया जिसका नेतृत्व सालार मसूद स्वंय कर कहा था। उसने सालार मसूद को धेर लिया। इस पर सालार सैफुद्दीन अपनी सेना के साथ उनकी सहायता को आगे बढे भयकर युद्व हुआ जिसमें हजारों लोग मारे गए। स्वयं सालार सैफुद्दीन भी मारा गया उसकी समाधि बहराइच-नानपारा रेलवे लाइन के उत्तर बहराइच शहर के पास ही है। शाम हो जाने के कारण युद्व बंद हो गया और सेनाएं अपने शिविरों में लौट गई। 10 जून, 1034 को महाराजा सुहेलदेव पासी के नेतृत्व में हिंदू सेना ने सालार मसूद गाजी की फौज पर तूफानी गति से आक्रमण किया। इस युद्ध में सालार मसूद अपनी धोड़ी पर सवार होकर बड़ी वीरता के साथ लड़ा लेकिन अधिक देर तक ठहर न सका। राजा सुहेलदेव ने शीध्र ही उसे अपने बाण का निशाना बना लिया और उनके धनुष द्वारा छोड़ा गया एक विष बुझा बाण सालार मसूद के गले में आ लगा जिससे उसका प्राणांत हो गया। इसके दूसरे हीं दिन शिविर की देखभाल करने वाला सालार इब्राहीम भी बचे हुए सैनिको के साथ मारा गया। सैयद सालार मसूद गाजी को उसकी डेढ़ लाख इस्लामी सेना के साथ समाप्त करने के बाद महाराजा सुहेल देव पासी ने विजय पर्व मनाया और इस महान विजय के उपलक्ष्य में कई पोखरे भी खुदवाए। वे विशाल ”विजय स्तंभ” का भी निर्माण कराना चाहते थे लेकिन वे इसे पूरा न कर सके। संभवतः यह वही स्थान है जिसे एक टीले के रूप मे श्रावस्ती से कुछ दूरी पर इकोना-बलरामपुर राजमार्ग पर देखा जा सकता है। ऐतिहासिक सूत्रों के अनुसार श्रावस्ती नरेश राजा प्रसेनजित पासी ने बहराइच राज्य की स्थापना की थी जिसका प्रारंभिक नाम भरवाइच था। इसी कारण इन्हे बहराइच नरेश के नाम से भी संबोधित किया जाता था।

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शनिवार, 25 जुलाई 2020

महाबली सेनापति गोकरन पासी

1857 की क्रांति : महाबली सेनापति गोकरन पासी
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परिचय :
             गोकरन पासी
             राजा = राजा नरपति सिंह
             क्षेत्र =  रोईया गढ़ी (भड़ायल- हरदोई )
             सन् = 1857 ई की क्रांति

रोचक तथ्य  = अपने  40 किलो के फरसे से अंग्रेज घुड़सवार को  बीच से घोड़े सहित चीर डाला

इतिहास में अभी तक राणा प्रताप के लिए जाना जाता था कि अकबर के सेनापति को एक वार में बीच से चीर डाला था

दूसरा किस्सा अब महाबली गोकरन पासी का नाम जुड़ गया है जिसने अंग्रेज घुड़सवार को बीच से घोड़े सहित बीच से चीर डाला था  इसकी पुष्टि एक ठाकुर लेखक  धर्मेन्द्र सिंह सोमवंशी की पुस्तक "हरदोई  का स्वतंत्रा संग्राम और सेनानी " से होती है

महाबली गोकरन पासी का 40 किलो का फरसा धारी थे

         राजा नरपति सिंह हरदोई जिले में बिलग्राम से दस मील दूर सदामऊ ( रोइया ग्राम ) स्थित है । जहां के नरपति सिंह सत्तावनी क्रान्ति में अमर हो गए । राजा नरपति सिंह स्वयं वीर और वीरों के प्रशंसक एवं पोषक थे । उनकी सेना में वही भरती हो सकता था जो सेर भर या इससे अधिक भोजन सामग्री को पचा ले ।

महाबली गोकरन पासी

                      गोकरन पासी बेहद लंबा और बदन का गठीला  बलिष्ठ नौजवान था  वह लाठी भाजने में निपुण और बेहतर धनुषधारी था उसकी हिम्मत और दिलेरी पूरा गांव जानता है खेतों में ढीठ बैलो को काबू करना, बिगड़ैल बैलों के के गर्दनों में सरावन लगाना उसके दाएं हाथ का काम था , इलाके में गोकरन नाम गूंजता 6 फिट 2 इंच  से ज्यादा लंबा था ( क्यूंकि कहते है पहले घर के दरवाजे घर के लंबे सदस्य के बराबर नाप से बनाया जाता था ऊपरी सज्जे से एक- दो अंगुल छोड़कर ,दरवाजे कि नाप 7 फिट थी )  वो क्योंकि इलाके में कोई उसके जैसा लंबा नहीं था जितना उसका शरीर मानो उतना ही भोजन करता, कुश्ती लड़ना, पहलवानी करता,

( तभी तो 40 किलो का फरसा लेकर चलता था )

अभी वह जवानी में ही था इलाके में राजा की सेना भरती में डुग्गी बजी जो राजा की सेना में भर्ती होना चाहता है  वह स्वेच्छा से भर्ती हो सकता है उसे  ऐलान करने वाले  ने एक शर्त भी बताई भर्ती केवल वहीं हो सकता है  जो सेर भर से ज्यादा आटा फांक लें ।

अब बात खाने की हो ये सुनकर गोकरन से भला कैसे रहा जाता उसको भी अपनी ताकत और छमता दिखाने की धुन जो सवार रहती थी
     
                       वह भी भर्ती वाले दिन पहुंच गया लाइन में लगा , अधे से ज्यादा तो बाहर हो गए , क्योंकि राजा नरपति सिंह की एक अच्छी आदत थी कमजोर सिपाही नहीं भरती करते थे  गोकरन की बारी आ गई उसे 1 सेर आटा दिया गया , एक तो उसकी लम्बाई और गठीले बदन से प्रभावित थे ही , कई लोग धमाचौकड़ी से मजे ले रहे थे कि ये भी नहीं खा पाएगा

              लेकिन 1 सेर कब चट कर गया गोकरन पता नहीं चला और  यही नहीं 1 सेर और  मांगा  इससे सब आश्चर्य चकित होकर देखने लगे वही राजा साहब भी गौर से देखने लगे ,  और यह भी बहुत जल्द चट कर गया यह अचूक करतब देख सब हैरान थे ,आटा फांकने के  तुरंत बाद  लोग तालियां और शबाश गोकरन  शाबाश गोकरन की आवाजे आने लगी लोग देख के हैरान थे कि जहां 1 सेर खाना मुश्किल था वहीं 2 सेर अभी तक किसी ने नहीं खाया  इलाके में खबर आग के तरह फैली  , चारो तरफ एक खूब वह वाही लूटी गोकरन पासी ने , फिर गोकरन की शारीरिक दक्षता  देखी गई की वह पहले से ही  तीरंदाजी ,कुश्ती , पहलवानी में निपुण है   उसे सेना में भर्ती कर किया गया और वह बहुत जल्द राजा नरपति सिंह का अंगरक्षक बन गया वह सदा राजा के साथ रहता

               1857 की क्रांति का दौर
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1857 की क्रांति अचानक धधक उठी पूरा अवध आज़ादी की जलती चिता में कूद पड़े  थे अवध के पासी इस विद्रोह में कूद पड़े ।
शिवराजपुर के चंदेले ठाकुर सतीप्रसाद की प्रेरणा से नरपति सिंह भी अंग्रेजों के विरोधी संगठन में सम्मिलित हुए । और उनका सेनापति महाबली गोकरन पासी ल इस रणभेरी में साया बन के कूद पड़ा वह राजा नरपति सिंह के साथ सदा रहता है

चौथा मितौली युद्ध वर्णन ( 9 नवम्बर 1858 )
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राजा ने मितौली गढ़ी सुरक्षित समझकर उसमें अपनी सारी फोर्स लेकर पहुंच गये । रास्ते में दो तो राजा केदारनाथ थमरवा को सौंप गये थे कहा था पुनः जब लौटेंगे तब ले लेंगे जोकि बाद में पकड़ी गई थीं । रुझ्या दुर्ग से रात में राजा अपने रथ पर स्थी लाखन सिंह तथा बलशाली अंगरक्षक गोकरन पासी के साथ निकले थे परन्तु दो अंग्रेज घुड़सवार सैनिकों ने राजा को देख लिया था अतः वे दोनों राजा के रथ के पीछे राजा को मारने चल दिये । घोड़ों की टापे सुनकर राजा ने देखा कि दो घुड़सवार आ रहे हैं राजा ने गोकरन से  कहा देखो ये कौन है गोकरन ने बताया शत्रु हैं अतः गोकरन ने राजा को निश्चित रहने को कहकर अपना चालीस किलो का लम्बा फरसा निकालकर किनारे खड़ा हो गया , जैसे ही घुड़सवार पास आये वीर गोकरन ने अपने फरसा से एक अंग्रेज तथा घोड़े को आधा - आधा काट डाला , दूसरा अंग्रेज मूर्छित हो गिर गया उसे रथ के पीछे बांध कर मार डाला । आठ या नौ दिन ही मितौली में रह पाये थे कि अंग्रेजों को पता चल गया कि राजा तथा उनके साथी फीरोजशाह एवं लक्कड़शाह मितौली में हैं । अंग्रेजी फौज ने वहाँ भी 9 नवम्बर 1858 को चढाई कर दी । यहाँ पर बड़ा युद्ध हुआ । ब्रिटिश तोपखाना बहुत बड़ा था तथा आधुनिक हथियार थे अतः राजा को पीछे हटना पड़ा । तीनों वीर अपनी सेना लेकर जंगलों में चले गये ।

                     एक  विशेष घटना
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19 अप्रैल , 1858 समय प्रातः राजा अपने अंगरक्षक गोकरन पासी के साथ टहल रहे थे तभी अचानक एक सेनाधिकारी ने दो सैनिकों के साथ राजा को घेर लिया तथा सैनिकों से कहा पकड़ो इस नरपति को । तभी गोकरन गरजा ए बदतमीज , राजा हैं अदब से बात कर । तभी अधिकारी ने फिर कहा गिरफ्तार हो नहीं तो गोली मार दूंगा और रिवाल्वर निकालने लगा तथा सैनिक आगे पकड़ने हेतु बढ़े पलक झपकते गोकरन पासी  ने दोनों सैनिकों को अपनी दोनो बगलों में ऐसे दबा लिया जैसे भेड़िया बकरों को दबा लेता है । इसके बाद एक सैनिक को गेंद की भांति उक्त सेनाधिकारी " सोनप " पर फेंक दिया उसकी चोट से सोनप के हाथ से रिवाल्वर नीचे गिर गया तभी राजा ने जमीन से एक पड़े हुए लट्ठा को उठाकर सोनप पर दे मारा सोनप फड़फड़ाया और मर गया । सैनिकों को गोकरन ने दबाकर मार डाला । ऐसे बलिष्ट थे दोनों नरवीर ।

इतिहास में अभी तक राणा प्रताप के लिए जाना जाता था कि अकबर के सेनापति को एक वार में बीच से चीर डाला था

दूसरा किस्सा अब महाबली गोकरन पासी का नाम जुड़ गया है जिसने अंग्रेज घुड़सवार को बीच से घोड़े सहित बीच से चीर डाला था  इसकी पुष्टि एक ठाकुर लेखक  धर्मेन्द्र सिंह सोमवंशी की पुस्तक "हरदोई  का स्वतंत्रा संग्राम और सेनानी " से होती है

   अत :  ऐसे खोए हुए वीर को दुनिया जान सके इस पोस्ट को ज्यादा से ज्यादा शेयर करे  यही ऐसे वीर को सच्ची शरद्धांजलि होगी ।

 ऐसे रोचक तथ्य आपके समाने लाता रहूंगा  पासी इतिहास जन जन तक पहुंचाने का काम करें ।
                   धन्यवाद

सलग्न कर्ता :
    (कुंवर प्रताप रावत)
The Pasi Landlords

रिफरेंस 1. गदर के फूल
            2. हरदोई का स्वतंत्रता संग्राम और सेनानी
            3.  रिजवी एण्ड भार्गव स्ट्रगल इन उ 0 प्र 0
            4.  और क्षेत्रीय की किदवंती भी जुड़ी है

( पासी इतिहासकार रामदयाल वर्मा जी का भी मार्गदर्शन रहा इस लेख में )



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वीरांगना ऊदा देवी की जयंती को लेकर सामाजिक संगठनों के बीच खींची तलवारे ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,  स...