राष्ट्ररक्षक : महाराजा सुहेल देव पासी 1001 ई . से 1034 ई.
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पासी राजा सुहेल देव को अपनी किताब में उतारने के लिए मै डॉ मेजर परशुराम गुप्त जी को कोटि कोटि धन्यवाद देता हूं
जिसमें का थोड़ा अंश मै आपको सामने लिख रहा हूं हूबहू उनकी लिखित लाइन
लेखक = डॉ मेजर परशुराम गुप्त
पुस्तक = राष्ट्रीय गौरव सम्राट हेम चन्द्र `विक्रमादित्य`
1001 ई. 1034 ई.तक महमूद गजनवी ने भारतवर्ष को लूटने की दृष्टि से 17 बार आक्रमण किया तथा मथुरा , कन्नौज व सोमनाथ के अति समृद्ध मंदिरों को लूटने में सफल रहा । सोमनाथ की लड़ाई में उसके साथ उसके भानजे सैयद सालार समूद गाजी ने भी भाग लिया । #1030 ई . में महमूद गजनवी की मृत्यु के बाद उत्तर भारत में इसलाम का विस्तार करने की जिम्मेदारी समूद ने अपने कंधों पर ली , लेकिन 10 जून , #1034 ई . को बहराइच की लड़ाई में वहीं के शासक महाराजा सुहेल देव पासी के हाथों वह डेढ़ लाख जेहादी सेना के साथ मारा गया । इस्लामी सेना की इस पराजय के बाद भारतीय शूरवीरों का ऐसा आतंक विश्व में व्याप्त हो कि उसके बाद आनेवाले 150 वर्षों तक किसी भी आक्रमणकारी को भारतवर्ष पर आक्रमण करने का साहस ही नहीं हुआ । ऐतिहासिक सूत्रों के अनुसार श्रावस्ती नरेश राजा प्रसेनजित ने बहराइच राज्य की स्थापना की थी , जिसका प्रारंभिक नाम भरवाइच था । इस कारण इन्हें ' बहराइच नरेश ' के नाम से भी संबोधित किया जाता था । इन्हीं महाराजा प्रसेनजित को माघ माह की बसंत पंचमी के दिन 990 ई . को एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई , जिसका नाम सुहेल देव रखा गया । अवध गजेटीयर के अनुसार इनका शासन काल 1027 ई . से 1077 ई . तक स्वीकार किया गया है । वे जाति के पासी थे , राजभर अथवा जैन , इस पर सभी एकमत नहीं हैं । महाराज सुहेल देव का साम्राज्य पूर्व में गोरखपुर तथा पश्चिम में सीतापुर तक फैला हुआ था । गोंडा , बहराइच , लखनऊ , बाराबंकी , उन्नाव व लखीमपुर - इस राज्य की सीमा के अंतर्गत समाहित थे । इन सभी जिलों में राजा सुहेल देव के सहयोगी पासी , राजभर राजा राज्य करते थे , जिनकी संख्या 21 थी । ये थे 1. रायसायब , 2. रायरायब , 3. अर्जुन , 4. भग्गन , 5. गंग , 6. मकरन , 7. शंकर , 8. करन , 9. बीरबल , 10. जयपाल , 11. श्रीपाल , 12 , हरपाल , 13. हरकरन , 14. हरख , 15. नरहर , 16 . भल्लर , 17. जुधारी , 18. नारायण , 19 , भल्ला , 20. नरसिंह तथा 21. कल्याण । ये सभी वीर राजा महाराजा सुहेल देव के आदेश पर धर्म एवं राष्ट्र - रक्षा हेतु सदैव आत्मबलिदान देने के लिए तत्पर रहते थे । इनके अतिरिक्त राजा सुहेल देव के दो भाई - बहरदेव व मल्लेदव भी थे , जो अपने भाई के ही समान वीर थे तथा पिता की भाँति उनका सम्मान करते थे ।
सैयद सालार मसूद गाजी क्रूर आक्रांता एवं लाखों कि सेना
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महमूद गजनवी की मृत्यु के पश्चात् पिता सैयद सालार साहू गाजी के साथ एक बड़ी जेहादी सेना लेकर सैयद सालार मसूद गाजी भारत की ओर बढ़ा । उसने दिल्ली पर आक्रमण किया । एक माह तक चले इस युद्ध ने सालार मसूद के मनोबल को तोड़कर रख दिया । वह हारने ही वाला था कि गजनी से बख्तियार साहू सालार सैफुदीन अमीर सैयद एजाजुद्दीन , मलिक दौलत मियाँ , रजव सालार और अमीर सैयद नसरूल्लाह आदि एक बड़ी घुड़सवार सेना के साथ मूसद की सहायता को आ गए । पुनः भयंकर युद्ध प्रारंभ हो गया , जिसमें दोनों ही पक्षों के अनेक योद्धा हताहत हुए । इस लड़ाई के दौरान राय महीपाल व राय हरगोपाल ने अपने घोड़े दौड़ाकर मसूद पर गदे से प्रहार किया , जिससे उसकी आँख पर गंभीर चोट आई तथा उसके दो दाँत टूट गए ।हालांकि यह दिनों वीर थे लड़ते शहीद हो गए हालाँकि ये दोनों ही वीर इस युद्ध में लड़ते हुए शहीद हो गए, लेकिन उनकी वीरता व असीम साहस अद्वितीय था ।
मेरठ और कन्नौज के राजाओं का झुकना
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मेरठ का राजा हरिदत्त मुसलमान हो गया तथा उसने मसूद से संधि कर ली । यही स्थिति बुलंदशहर व बदायूँ के शासकों की भी हुई । कन्नौज का शासक भी मसूद का साथी बन गया । अत : सालार मसूद ने कन्नौज को अपना केंद्र बनाकर हिंदुओं के तीर्थ स्थलों को नष्ट करने हेतु अपनी सेनाएँ भेजना प्रारंभ किया । इसी क्रम में मलिक फैसल को वाराणसी भेजा गया तथा स्वयं सालार मसूद सप्तऋषि ( सतरिख ) की ओर बढ़ा । मिरआते मसूदी के विवरण के अनुसार सतरिख ( बाराबंकी ) हिंदुओं का एक बहुत बड़ा तीर्थ स्थल था । एक किवदंती के अनुसार इस स्थान पर भगवान् राम व लक्ष्मण ने शिक्षा प्राप्त की थी । यह सात ऋषि का स्थान था , इसीलिए इस स्थान का नाम सप्तऋषि पड़ा था , जो धीरे - धीरे सतरिख हो गया । सालार मसूद विलग्राम , मल्लावा , हरदोई , संडीला मलिहाबाद , अमेठी व लखनऊ होते हुए सतरिख पहुँचा । उसने अपने गुरु सैयद इब्राहिम बारा हजारी को धुंधगढ़ भेजा , क्योंकि धुंधगढ़ के किले में उसके मित्र दोस्त मोहम्मद सरदार को राजा रायदीन दयाल व अजय पाल ने घेर रखा था । इब्राहिम बाराहजारी जिधर से गुजरते गैर - मुसलमानों का बचना मुश्किल था । बचता वही था , जो इसलाम स्वीकार कर लेता था ।
आईन - ए - मरादी के अनुसार --
निशान सतरिख से लहराता हुआ बाराहजारी का ।
चला है धुंधगढ़ को काफिला बाराहजारी का ।
मिला जो राह में मुनकिर उसे दोजख में पहुँचाया ।
बचा वह जिसने कलमा पढ़ लिया बाराहजारी का ।
इस लड़ाई में राजा दीनदयाल व तेजसिंह बड़ी ही वीरता से लड़े , लेकिन वीरगति को प्राप्त हुए । परंतु दीनदयाल के भाई राय करनपाल के हाथों इब्राहिम बाराहजारी मारा गया । कड़े के राजा देव नारायन और मानिकपुर के राजा भोजपत्र ने एक नाई को सैयद सालार मसूद के पास भेजा कि वह विष से बुझी नहन्नी से उसके नाखून काटे , ताकि सैयद सालार मसूद की इहलीला समाप्त हो जाए , लेकिन इलाज से वह बच गया । इस सदमे से उसकी माँ खुलर मुअल्ला चल बसी । इस प्रयास के असफल होने के बाद बड़े मानिकपुर के राजाओं ने बहराइच के राजाओं को संदेश भेजा कि हम अपनी ओर से इसलामी सेना पर आक्रमण करें और तुम अपनी ओर से । इस प्रकार हम इसलामी सेना का सफाया कर देंगे । परंतु संदेशवाहक सैयद सालार के गुप्तचारों द्वारा बंदी बना लिये गए इन संदेशवाहकों में दो ब्राह्मण और एक नाई थे । ब्राह्मणों को तो छोड़ दिया गया , लेकिन नाई को फाँसी दे दी गई ।
गाजी का मानिकपुर पर धावा
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इस भेद के खुल जाने पर मसूद के पिता सालार साहू ने एक बड़ी सेना के साथ बड़े मानिकपुर पर धावा बोल दिया । दोनों राजा देवनारायण व भोजपात्र बड़ी वीरता से लड़े , लेकिन परास्त हुए । इन राजाओं को बंदी बनाकर सतरिख भेज दिया गया । वहाँ से सैयद सालार मसूद के आदेश पर इन राजाओं को सालार सैफुद्दीन के पास बहराइच भेज दिया गया । जब बहराइच के राजाओं को इस बात का पता चला तो उन लोगों ने सैफुद्दीन को घेर लिया । इस पर सालार मसूद उसकी सहायता हेतु बहराइच की ओर आगे बढ़े । इसी बीच उनके पिता सलार साहू का निधन हो गया । बहराइच के पासी राजा भगवान् सूर्य के उपासक थे । बहराइच में सूर्य कुंड पर स्थित भगवान् सूर्य की मूर्ति की वे पूजा करते थे । उस स्थान पर प्रत्येक वर्ष ज्येष्ठ मास के प्रथम रविवार जो वृहस्पतिवार के बाद पड़ता था , एक बड़ा मेला लगता था । यह मेला सूर्य ग्रहण , चंद्र ग्रहण तथा प्रत्येक रविवार को भी लगता था यह परंपरा काफी प्राचीन थी । बालार्क ऋषि के भगवान् सूर्य के प्रताप से इस कुंड में स्नान करनेवाले कुष्ठ रोग से मुक्त हो जाया करते थे ।
बहराइच का युद्ध और उसकी वीरगाथाएं
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बहराइच को पहले ' ब्रह्माइच ' के नाम से जाना जाता था । सालार मसूद के बहराइच आने का समाचार पाते ही बहराइच के राजा गण - राजा रायब , राजा सायब , अर्जुन , भीखन , गंग , शंकर , करन , बीरबल , जयपाल , श्रीपाल , हरपाल , हरक्ष , जोधारी व नरसिंह महाराज सुहेल देव के नेतृत्व में लामबंद हो गए । ये राजा गण बहराइच शहर के उत्तर की ओर लगभग आठ मील की दूरी पर भकला नदी के किनारे अपनी सेना सहित उपस्थित हुए । अभी ये युद्ध की तैयारी कर ही रहे थे कि सालार मसूद ने उन पर रात्रि - आक्रमण ( शबखून ) कर दिया । मगरिब की नमाज के बाद अपनी विशाल सेना के साथ वह भकला नदी की ओर बढ़ा और उसने सोती हुई हिंदू सेना पर आक्रमण कर दिया । इस अप्रत्याशित आक्रमण में दोनों ओर के अनेक सैनिक मारे गए , लेकिन बहराइच की इस पहली लड़ाई में सालार मसूद विजयी रहा । पहली लड़ाई में परास्त होने के पश्चात् पुनः अगली लड़ाई हेतु हिंदू सेना संगठित होने लगी , लेकिन उन्होंने रात्रि - आक्रमण की संभावना पर ध्यान नहीं दिया । उन्होंने राजा सुहेल देव के परामर्श पर आक्रमण के मार्ग में हजारों विषबुझी कीलें अवश्य धरती में छिपाकर गाड़ दीं । ऐसा रातोरात किया गया । इसका परिणाम यह हुआ कि जब मसूद की घुड़सवार सेना ने पुनः रात्रि आक्रमण किया तो वे इनकी चपेट में आ गए । हालाँकि हिंदू सेना इस युद्ध में भी परास्त हो लेकिन इसलामी सेना के एक - तिहाई सैनिक इस युक्ति प्रधान युद्ध में मारे गए । भारतीय इतिहास में इस प्रकार युक्तिपूर्वक लड़ी गई यह एक अनूठी लड़ाई थी । दो बार धोखे का शिकार होने के बाद हिंदू सेना सचेत हो गई तथा महाराज सुहेल देव के नेतृत्व में निर्णायक लड़ाई हेतु तैयार हो गई । कहते हैं कि इस युद्ध में प्रत्येक हिंदू परिवार से युवा हिंदू इस लड़ाई में सम्मिलित हुए । महाराज सुहेल देव के शामिल होने से हिंदुओं का मनोबल बढ़ा हुआ था । लड़ाई का क्षेत्र चित्तौरा झील से हठीला और अनारकली झील तक फैला हुआ था । #10जून_1034 ई . में हुई इस लड़ाई में सालार मसूद ने दाहिने पार्श्व ( मैमना ) की कमान मीर नसरुल्लाह को तथा बाएँ पार्श्व ( मेसरा ) की कमान सालार रज्जब को सौंपा तथा स्वयं केंद्र ( कल्व ) की कमान संभाली तथा भारतीय सेना पर आक्रमण करने का आदेश दिया । इससे पहले इस्लामी सेना के सामने हजारों गायों व बैलों को छोड़ा गया , ताकि हिंदू सेना प्रभावी आक्रमण न कर सके , लेकिन महाराजा सुहेल देव की सेना पर इसका कोई भी प्रभाव न पड़ा । वे भूखे सिंहों की भाँति इस्लामी सेना पर टूट पड़े । मीर नसरुल्लाह बहराइच के उत्तर में बारह मील की दूरी पर स्थित ग्राम दिकोली के पास मारे गए । सैयद सालार मसूद के भानजे सालार मियाँ रज्जब बहराइच के पूर्व तीन किमी . की दूरी पर स्थित ग्राम शाहपुर जोत यूसुफ के पास मार दिए गए । इनकी मृत्यु 8 जून , 1034 ई . को हुई । अब भारतीय सेना ने राजा करन के नेतृत्व में इस्लामी सेना के केंद्र पर आक्रमण किया , जिसका नेतृत्व सालार मसूद स्वयं कर रहा था । उसने सालार मसूद को घेर लिया । इस पर सालार सैफुद्दीन अपनी सेना के साथ उनकी सहायता को आगे बढ़े । भयंकर युद्ध हुआ , जिसमें हजारों लोग मारे गए । स्वयं सालार सैफुद्दीन भी मारा गया
सैयद सालार मसूद गाजी कि समाधि
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शाम हो जाने के कारण युद्ध बंद हो गया और सेनाएँ अपने शिविरों में लौट गई । 10 जून , 1034 को महाराजा सुहेल देव के नेतृत्व में हिंदू सेना ने सालार मसूद गाजी की फौज पर तूफानी गति से आक्रमण किया । सैयद गाजी बड़ी वीरता के साथ लड़ा , लेकिन अधिक देर तक ठहर न सका । पासी राजा सुहेल देव ने शीघ्र ही उसे अपने बाण का निशाना बना लिया और उनके धनुष द्वारा छोड़ा गया एक विष बुझा बाण सालार मसूद के गले में आ लगा , जिससे उसका प्राणांत हो गया । इसके दूसरे ही दिन शिविर की देखभाल करनेवाला सालार इब्राहिम भी बचे हुए सैनिकों के साथ मारा गया । सैयद सालार मसूद गाजी को उसकी डेढ़ लाख इस्लामी सेना के साथ समाप्त करने के बाद महाराजा सुहेल देव ने विजय पर्व मनाया और इस महान् विजय के उपलक्ष्य में कई पोखरे भी खुदवाए । वे एक विशाल ' विजय स्तंभ ' का भी निर्माण कराना चाहते थे , लेकिन वे इसे पूरा न कर सके । संभवत : यह वही स्थान है , जिसे एक टीले के रूप में श्रावस्ती से कुछ दूरी पर इकोना - बलरामपुर राजमार्ग पर देखा जा सकता है ।
(किताब का संदर्भ बस यहीं तक )
नोट - महाराजा सुहेलदेव को अवध गजेटियर के अनुसार पासी जाति का स्वीकार किया गया राजभर व जैन पर एकमत नहीं है यह किताब इस बात की पुष्टि करती है
महाराजा सुहेलदेव पासी के बारे में लिखने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद डॉ परशुराम गुप्त जी का स्वागत एवं अभिनन्दन सारी बाते इस किताब से संदर्भित है । ये बात हो गई इस किताब और लेखक की आगे बढ़ते है ।
#10_जून_1034_विजय_दिवस
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पासी राजा सुहेल देव और राजपासी राजा कंस 1030 ई.-1034 ई.
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जैसा कि ऊपर आपने राजा सुहेल देव पासी के बारे में पढ़ा
और जाना बहुत सी चीजे है जो अभी बाकी सी है जैसे
लखनऊ का संघर्ष , रजपासी राजा कंस । जो उस समय थे और जिनको कोई नहीं जानता है । क्योंकि सैयद सलार मसूद गाजी कि आधी सेना लखनऊ में ही ख़तम हुई थी । और लखनऊ के पासियो के संघर्ष में कोई नहीं जानता है इसलिए उन वीर रणबांकुरो को भी जानना जरूरी है ।
राजपासी राजा कंस
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राजा - राजपासी राजा कंस
समयकाल - ( 980 - 1031) ई.
राजगद्दी - कंसमण्डी ( लखनऊ )
क्षेत्र - अवध ( उत्तरप्रदेश )
प्रथम युद्ध - उन्नाव- संडीला सीमा क्षेत्र
दृतिया बर्बर युद्ध - कंसमण्डी की लड़ाई
तृतीया युद्ध - ( कैथोलि-खातौली ) निकट कंसमण्डी
वीरगति - 1031 ई. ( कैथोलि - खतौली )
राज्य-सीमायें - उन्नाव , मलिहाबाद , संडीला ककोरी, हरदोई ,सीतापुर , पश्चिमी लखनऊ आदि ।
11 सदी के शुरुआती समय में महाप्रतापी राजा कंस जो जाति के राजपासी थे जिनको राज्य अपने पुरखो से मिली थी उनका शासन लखनऊ के काकोरी (मलिहाबाद ) के निकट कंवलाहार कंसमण्डी ( कंसमण्डप) में था
राजपासी राजा कंस का समयकाल 980 ईस्वी से 1031 इस्वी तक माना गया है
जब भारत पर विदेशी आक्रमणकारियों के खतरे मंडरा रहे थे और जब सैयद सालार मसूद गाजी का जेहाद ( धर्मयुद्ध ) छेड़ा था और पूरे भारत को फतेह करना चाहता था
उसकी लालसा पूरे भारत को जीतकर इस्लाम फैलाना था जब पंजाब को जीतते हुवे दिल्ली जीतकर कन्नौज पर हमला किया कन्नौज का राजपूत राजा बचने के लिए इस्लाम कबूल कर लिया ,जेहादियो की सेना में भी शामिल हो गया ,आगे उसे रोकने टोकने वाला कोई ना मिला लेकिन जब गंगा पार कर अवध में दाखिल हुआ तो उसकी बर्बरता चरम पे थी जिधर से भी गुजरता हिदुओ का बचना मुश्किल था जब तक कि वह इस्लाम कबूल ना कर ले ,उसके आतंक के चर्चे हर जगह फैल गए लोगों में त्राहि त्राहि मच गई जहाँ सैयद मसूद गाजी की सवालाख जेहादियों सेना थी ।
लखनऊ के पासियो का बिकट संघर्ष
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वही अवध में रजपासियो छोटे छोटे राजाओ के छोटे गडराज्य थे जो आपस मे मिलकर रहते थे और पश्चिम अवध में राजपसियो का शासन था जो अपने स्वतंत्र प्रवर्ति के लिए जाने जाते थे जो बेहद स्वाभिमानी ,और अड़ियल रुख वाले होते थे जो बात बात पर म्यान से तलवार निकाल लिया करते थे
उन वीर रजपासियो का शासन पूरे पश्चिम अवध में उस समय था
सैयद सालार मसूद गाजी की जो विजय अभी तक हुवी थी उनमे से लखनऊ की लड़ाई उसने कभी ख्वाब में भी नही सोचा था ,ना ही उम्मीद की थी
मसूद गाजी के लखनऊ में कदम रखते ही पहली लड़ाई कंसमण्डी के राजपासी राजा कंस से लड़नी पड़ी इस जबदरस्त मुकाबले में उसके दो सेनापति सैयद हातिम और ख़ातिम मारे गए
मसूद गाजी जो सवा लाख से भी ज्यादा थे और राजपासी कुछ चंद हज़ार फिर भी अपने ताकत का लोहा मनवा लिया
राजा कंस से पहली लड़ाई उन्नाव और संडीला के किलो पर हुवी फिर उसके बाद जबरदस्त लड़ाई काकोरी मलिहाबाद पे हुवी इस भयानक युद्ध मे राजपासी राजा कंस के हाथों से ककोरी निकल गया वँहा मुस्लिमों का कब्जा हो गया ।
सैयद गाजी ने वँहा अपनी सैनिक अड्डा बना लिया
सैयद हातिम और खातिम
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उसके बाद उसके दो सेनापति सैयद हातिम और खातिम ने राजा कंस की गद्दी ( सिंहासन ) कंसमण्डी पर हमला हुआ ये जबरदस्त लड़ाई हुवी यहाँ , तुर्को की हार निश्चित हो गयी लेकिन तब तक गाजी की हज़ारो घुड़सवार वँहा आ डटे
दुबारा मदद मिलने से गाजी का पलड़ा भारी पड़ने लगा ,लड़ाई लड़ते लड़ते रात हो गयी गाजी की सेना भारी पड़ने लगि तब जाकर राजा कंस ने सारी सेना किले के अंदर बुला ली और गुप्त सुरंगों से अपनी बाहरी मदद का इंतजार करने लगे क्योंकि पड़ोसी राजा भी उस समय मुश्किल में थे क्योंकि गाजी ने सारे आसपास के राजाओ पर एक साथ हमला किया ताकि कोई राजा एक दूसरे की मद्दद ना कर सके इसमे कोई दो राय नही है कि गाजी एक कुशल युद्व नीति का धनी था ।
जब गाजी की सेना कंसमण्डी के किले को चारो तरफ घेर ली और गोल गोल चक्कर काटने लगी थी उन लोगो ने किले के दरवाजे को तोड़ने और किलो पे चढ़ने की बहुत कोशिश की लेकिन किले पे मजबूत धनुषधारी राजपासी ने अपना कमाल दिखया उस समय राजपासियो के बनाये तीर पूरे भारत मे जाती थी और राजपासियो कि तीरंदाजी दुनिया मे मशहूर थी
वह युद्ध बड़ा भयानक था
वह रात में लड़ा गया युद्ध था उसी युद्ध मे राजपासी राजा कंस ने तेल को गरम करवा कर बड़ी तरकीब से सैयद हातिम ख़ातिम पर डलवा दिया ,जिससे दोनो वंही तड़प तड़प के मर गया
सैयद हातिम और ख़ातिम के मरते ही मुसलमानो में भगदड़ मच गई और भाग खड़े हुवे वहाँ राजपासी राजा कंस की रात में जीत दर्ज हुवी
यह युद्ध कोई एक दो दिन का नही था फिर आगे चलकर राजा कंस का और युद्ध हुवे जहाँ कंसमण्डी से कुछ दूरी पर खातौली ( कैथोलि) पर राजपासी राजा कंस वीरगति हुवे
ये युद्ध बड़ा ही भयानक और राजपसियो क बलिदान की गँवाह है जिहोने इस देश धर्म माटी के खातिर अपने प्राणो की आहूति दे दी जिनका नाम लेने वाला आज कोई नही है उन वीर राजपासियो के बलिदान के बारे में एक छोटी सी पेशकश आपतक लाया हूँ
और उस युद्ध मे मारे गए जेहादी आज भी मलिहाबाद में गंजशहीदा में आज भी दफन है
और इस युद्ध के बाद जब गाजी आगे बढ़ा तो 2 साल बाद राजा सुहेल देव पासी ने सैयद सालार गाजी को मार गिराया और उसके जेहाद पर लगाम लगा दी
ये है कहानी राजपासी राजा कंस की है जिन्होंने गाजी के मारे जाने से 2,3 साल पहले लखनऊ के संघर्ष की कहानी को बंया करती है राजा सुहेल देव से पहले राजा कंस ने जो भयानक युद्ध किया था उससे उबरने में गाजी को सालो लग गए और अगली लड़ाई में गाजी बहराइच में मारा जाता है पासी राजा सुहेल देव के द्वारा
राजपासी कंस का संदर्भ -
1. Lucknow monument 1989, p.37
2. ताजदारे ए अवध प.7.etc
राजपूतों और राजभर के फर्जी दावे
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कुछ दिनों से देखा जा रहा है कि पासी राजा सुहेलदेव को राजभर एवं राजपूत बनाने की कोशिश की जा रही है
आज से नहीं बहुत पहले से हो रहा है जिसकी शुरूवात कई दशक से ही हो रहा था (1900-1950 ) ई. इस समय आर्य समाजियों ने कई सारी जातियों को ब्राह्मण और क्षत्रियों की गोत्रों से जोड़कर उनका इतिहास लिखा ताकि उनका ब्राह्मणीकरण हो सके , वह अपने को ब्राह्मण समझ कर खुश रहे ताकि वास्तविक इतिहास का दर्पण ना कर सके , और ब्राह्मणों क्षत्रियों के मानसिक गुलाम बने रहे , 1920 के दशक में पासी जाति की ब्राह्मण बताया जाने लगा , सिर्फ पासी है नहीं कई जातियां , जैसे , भंगी , चमार , अहीर , पासी और यहां तक भर जाति को भारद्वाज से जोड़कर उनको ऋषियों की संतान बताया गया बल्कि गोरखपुर के भर राजा भारद्वाज था
और इस कार्य को अंजाम देने के लिए इन लोगों ने गजेटियर और वेदों का सहारा लिया ताकि हर जाति को ब्राह्मण एंव क्षत्रिय बताया जा सके और उनका ब्रहमनिकरण किया जा सके और वह वास्तविक इतिहास से वंचित रहे और असली राजपूत एवं क्षत्रिय अपना वर्चस्व स्थापित किए रहे और और इसीलिए उन्होंने 1940 के दशक जैन राजा कहकर प्रचारित किया और आगे चलकर 500 बीघा जमीन जो (एक नाटक का हिस्सा रहा ) राजपूतों द्वारा दी गई थी इसलिए दिया गया था कि आज अपना साक्ष्य दिखा सकें भविष्य में आज वही कर रहे है ।
और यह हर जगह या कहकर प्रचारित करवा रहे हैं 1960- 1970 दशक में मात्र पासी जाति का वोट बैंक पाने के लिए राजा सुहेलदेव पासी बताया गया-
तो मै आपको बता दूं ऐसा प्रचार करना हास्य पद है और षड्यंत्र की निशानी है अगर ऐसा होता तो भला 1948 की पुस्तिका " पासी वीर महासभा" में राजा सुहेल देव पासी का जिक्र क्यों होता है 1970 से 40 साल पहले लिखी थी ।
और 1940 के दशक लोग में बनी "पासी वीर दल"
अपनी कविताओं में राजा सुहेल देव पासी को क्यों गाता!! अगर यदि यह अस्मिता बाद में बनी होती तो ,1970 के 40 साल पहले पासियो में यह तथ्य विद्यमान क्यों होता ।
चलो अच्छा हुआ यह पासी वीर महासभा की पुस्तिका अभी पड़ताल में कुछ पुराने लोगों के यहां मिली नहीं तो, ये लोग यह कहते 1970 की नहीं - नहीं 1940 में पासी का वोट बैक पाने के लिए उनको सुहेल देव पासी किय गया था 😆😄😂 जबकि उस समय देश भी आज़ाद नहीं हुआ था मतलब कुछ भी कर सकते है यह लोग 😆😁
तो षड्यंत्र कारी अपने दिमाग पर जोर डालिए 🤔🤔🤭
" सत्य परेशान हो सकता है पराजित नहीं"
इसका मतलब साफ है कि राजा सुहेलदेव पासी को पासी समाज सदियों सदियों से अपना मानता है और अपनी जाति का बताता आया है और सेंसस ऑफ़ इंडिया और भारतीय विद्वानों के मतानुसार राजा सुहेलदेव पासी थे आज इसे षड्यंत्रकारी राजभर और राजपूत बताकर राजनीतिक लाभ उठाना चाहते हैं राजभर अक्सर भर का साक्ष्य दिखाता है और राजभर साबित करने की कोशिश करता है जबकि भर पासी की अवध में 14 उपजाति में से एक है ।
और राजपूत जो दावा करता उसका भी करना निराधार है क्यूंकि उनको बैंस बताता है जबकि आपको पता होना चाहिए अवध के बैंस राजपूत की उत्पति भर और पासी से बताई जाती है कई राजपूतों के प्राचीन घराने पासी और भर के बताए जाते है दूसरी बात वह उनके जैन बता कर राजपूत बनाने की कोशिश कर रहे है वह भी गलत है जैन कोई जाति नहीं धर्म के नाम से जाना जाता है जिसकी वास्तविकता यह है कि कुछ इतिहासकारों के मतानुसार राजा सुहेलदेव में जैन धर्म ग्रहण कर लिया था तो इससे उनकी जाति नहीं बदलती है उनका धर्म जरूर बदल सकता है । तो साक्ष्यों के आधार पर और आज़ाद भारत के विद्वानों के मतानुसार राजा सुहेल देव पासी थे
( The Pasi Landlords )
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